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________________ पूर्वोक्त सूत्र का अर्थ यह नहीं कि प्रथमादि प्रदेश अजीव हैं और अन्तिम जीव है, क्योंकि वह अन्तिम प्रदेश भी एक है। श्रुत में भी इसका निषेध किया हैं - उल्लेख है “एगे भन्ते! जीवपएसे जीवेत्ति वत्तव्वं सिया? णो इणढे समढे।” अतः यह सिद्ध है कि सभी प्रदेशों के मिलने पर ही जीव माना जाता है। ___ उदाहरण है कि - "जम्हाणं कसिणे पडिपुन्ने लोगागासपएसतुल्ले जीवे जीवेत्ति वत्तवं सिया” जैसे एक तार (तन्तु) वस्त्र नहीं कहलाता है, वैसे एक प्रदेश जीव नहीं कहलाता है। जैसे सम्पूर्ण समुदित तंतु वस्त्र कहलाता है वैसे ही जीव के सम्पूर्ण प्रदेश जीव कहलाता है।' नय सात है, उनमें से एवंभूत नय देश-प्रदेश को वस्तु से भिन्न नहीं मानता है, देश-प्रदेश की कल्पना से रहित सम्पूर्ण वस्तु ही एवंभूत का विषय है। एवंभूत नय को प्रमाण मानने से सम्पूर्ण जीव को जीव मानना होगा, किसी एक प्रदेश को नहीं।' पूर्वपक्ष - कभी-कभी कहा जाता है कि गाँव जल गया, कपड़ा जल गया, इत्यादि स्थानों में एक देश में सम्पूर्ण वस्तु का उपचार किया जाता है। इसी प्रकार अन्तिम प्रदेश में भी समस्त जीव का व्यवहार हो सकता है, यह मान सकते हैं। उत्तरपक्ष - यह सत्य नहीं है, क्योंकि जब अन्तिम प्रदेश में जीवत्व का व्यवहार कर सकते हैं तब प्रथम प्रदेश में कर सकते हैं। यदि एक देश में ही सम्पूर्ण वस्तु का उपचार मानते हैं तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उपचार कुछ न्यून प्रदेशों में हो सकता है, जैसे - कुछ अधुरे कपड़े में कपड़े का व्यवहार होता है, किन्तु एक तन्तु में कभी कपड़े का व्यवहार नहीं होता है, इसी प्रकार एक प्रदेश में भी जीव का व्यवहार नहीं हो सकता।' . तिष्यगुप्त ने सर्वज्ञवचनों को एक नय की दृष्टि से जानकर मिथ्या धारणा अपना ली, पर सर्वज्ञवचनों का कथन सर्वनयात्मक रूप जानना चाहिए। इस चरमप्रदेशी वाद का खण्डन मित्रश्री श्रावक ने प्रयोगात्मक रूप से किया। नणु एगोत्ति सिसिद्धो सोवि सुए जइ सुयं पमाणं ते। सुत्ते सव्वप्पएसा भणिया, जीवो न चरिमोत्ति।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2343 ' तंतु पडोवयारी न समत्तपड़ो य समुदिया ते उ। सव्वे समत्तपडओ, सबपएसा तहा जीवो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2344 एवंभूयनयमयं देसपएसा न वत्थुणो भिन्ना। तेणावत्युत्ति मया कसिणं चिय वत्थुमिठें से।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2345 447 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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