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________________ समीक्षा तिष्यगुप्त का मत प्रदेश में जीव कैसे सिद्ध प्रदेशवत् ही है, दोनों में असमानता नहीं हो सकती । ' तार्किक खण्डन यदि यह माने कि अन्त्यप्रदेश असंख्यात प्रदेश राशि को पूर्ण करता है वह पूरक होने के कारण जीव कहलाता है तब यह मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रथम से लेकर अन्तिम प्रदेश सभी पूरक हैं, किसी एक के बिना जीव अधुरा है। प्रत्येक प्रदेश को जीव मानने पर असंख्यात जीव हो जायेंगे । अथवा प्रथमादि प्रदेशवत् अन्त्यप्रदेश में भी जीवत्व का अभाव होने पर जीव का सर्वथा अभाव हो जायेगा। जैसे रेती के कण में तेल का अभाव हैं वैसे प्रत्येक प्रदेश में जीवत्व के अभाव मानने पर अन्त्यप्रदेश में जीवत्व कहाँ से आयेगा? जो वस्तु सभी अवयवों में व्याप्त नहीं रहती, वह सब के मिल जाने पर भी पैदा नहीं हो सकती । यदि जीव के प्रथम प्रदेश में जीव नहीं मानते हैं तो अन्त होगा ? क्योंकि सभी प्रदेश समान हैं । अन्त्यप्रदेश भी प्रथम तिष्यगुप्त के अनुसार यदि यह कहा जाये कि सभी प्रदेशों के पूरक होने पर अन्तिम प्रदेश ही जीव है, दूसरे नहीं है तब यह तथ्य मनोकल्पना होगी। कल्पना से व्यक्ति कुछ भी सोच सकता है, यह भी कहा जा सकता है कि प्रथम प्रदेश ही जीव है, बाकी सब अजीव हैं या कुछ प्रदेश जीव है तथा कुछ अजीव हैं । पूर्वपक्ष यदि यह कहें कि शेष प्रदेशों में जीव आंशिक रूप से है किन्तु अन्तिम प्रदेश में पूर्ण रूप से रहता है। उत्तर पक्ष यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जैसा अन्त्यप्रदेश है, वैसे ही शेष प्रदेश है, दोनों में समानता है, जो हेतु अन्तिम प्रदेश में सम्पूर्ण जीवत्व का साधक हैं, उसी हेतु से दूसरे प्रदेशों में सम्पूर्ण जीवत्व सिद्ध किया जा सकता है।' - गुरुणाभिहिओ जइ ते पढमपएसो न समओ जीवो। तो तप्परिणामो थिय, जीवो कहमंति पाएसो 2 अहवा स जीवो किह नाइमेत्ति, को वि विसेसहेऊ वे । अह पुरणोति बुद्धि, एक्केक्को पूरणो तस्स ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2338 3 जं सव्वा न वीसुं सब्बे वि तं न रेनुतेल्लं । सेसेसु असंभुओ जीवो कहमंति पएसे ।। विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2340 Jain Education International विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2337 अह देसओऽवसेसेसु तोवि किह सव्वहंतिमे जुत्तो । अह तन्मि व जो हेऊ स एव सेसेसुबि समाणो विशेषावश्यकभाष्य, गावा 2341 446 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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