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प्र. उ.
एगे भंते जीवेत्ति वत्तवं सिया? णो इणढे समठे। एव दो, तिण्णि जाव दस, संखेज्जा, असंखेज्जा भंते। जीवपएसा जीवेत्ति वत्तवं सिया? णो इणटे समटे एग पएसेणेत्ति जीवेण जीवेत्ति वत्तवं सिया।
से केणटेणं?
जम्हा णं कसिणे पडिपूण्णे लोगागासपएसतुल्ले जीव जीवेत्ति वत्तवं सिया, से
तेण?णं, इति।
इसका तात्पर्य यह है कि - हे भगवन् ! क्या जीव का एक प्रदेश जीव है? यह अर्थ ठीक नहीं है।
हे भगवन्! क्या दो, तीन, दस संख्यात या असंख्यात जीवप्रदेश जीव हैं? उ. नहीं, यह अर्थ सम्मत / समुचित नहीं है, जिसमें एक प्रदेश भी कम हो, उसे
जीव नहीं कहा जा सकता। ऐसा क्यों भगवन्? क्योंकि सम्पूर्ण लोकाकाश प्रदेशों के समान जो जीव है, उसे ही जीव कहा जा सकता है।
इसको पढ़कर तिष्यगुप्त ने विचार किया कि – एक, दो आदि प्रदेश जीव नहीं हैं, तथा एक प्रदेश हीन हो तब भी वह जीव नहीं है, अतः जो अन्तिम प्रदेश है, जिससे जीव पूर्ण होता है, वह प्रदेश ही जीव है, अन्य सर्व प्रदेश नहीं। उसे यह विपरीत धारणा सम्यक् समा के अभाव में हुई।'
एगादेसओ पएसा नो जीवो न य पएसहीणोवि। जं तो स जेण पुण्णो स एव जीवोऽत्तिमपएसो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2336
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