________________
होगा। यदि कार्य की निष्पत्ति प्रथम समय में नहीं होगी, तो दूसरे समय में नहीं होगी। ऐसी स्थिति में यदि यह मानो कि अन्तिम समय में ही कार्य की निष्पत्ति हुई है तो पूर्व क्षणों की क्रिया निरर्थक हो जायेगी। ऐसी स्थिति में जमालि का यह सिद्धान्त तार्किक
सबल नहीं हो सकता।
इस बहुरतवाद का खण्डन ढंक श्रावक ने प्रयोगात्मक रूप से किया।
जमालि की पत्नी साध्वी प्रियदर्शना भी बहुरतवाद को मानने लगी थी, एक बार श्रावस्ती नगरी में ढंक कुम्भकार (श्रावक) के यहाँ ठहरी। वह स्वाध्याय में लीन थी, तभी ढंक ने एक अंगारा उन पर फेंका, जिससे साध्वी जी की साड़ी (संघाटी) का एक कोना जल गया। साध्वी ने कहा - ढंक! तुमने मेरी संघाटी क्यों जलाई? ढंक ने कहा - संघाटी कहाँ जली, वह तो जल रही है, क्योंकि तुम्हारा सिद्धान्त यह है कि जितना भाग जल गया, उसे जला नहीं कहना, पूरा जलने के बाद जल गया है, ऐसा कहना है, इस तरह उन्हें क्रियमाण कृत का रहस्य समझाया। 2
सारांश
भगवान महावीर का सिद्धान्त क्रियमाण कृत है अर्थात् जो काम किया जा रहा है उतना तो सम्पन्न हो चुका है, जितना किया गया। पर जमालि के अनुसार जब कार्य पूर्ण रूप से निष्पन्न हो जाता है, तब उसे कृत कहा जाता है। उसका कथन है कि घड़े की उत्पत्ति उसके अन्तिम समय में होती है, किन्तु ऐसा नहीं है। घड़े का निर्माणकाल मिट्टी भिगोने, चाक पर चढ़ाने तथा अनेक आकृतियाँ होने पर प्रारम्भ हो जाता है। जमालि व्यवहार नय की एकान्त दृष्टि को लेकर भगवान महावीर के मत को मिथ्या समझने लगा
था।
तिष्यगुप्त की चरमप्रदेशी जीव की अवधारणा और समीक्षा
चरमप्रदेशी जीव - तिष्यगुप्त 14 पूर्वधर आचार्य वसु के शिष्य थे। एक बार वे आत्मप्रवाद पूर्व का अध्ययन कर रहे थे, उसमें एक आलापक आया कि -
' दड्ढां न इज्झमाणं जइ विगएडणागए व का संका।
काले तयभावाओ, संघाडी कम्मि ते दड्ढा ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2327 उज्जुसुयनयमयाओ, वीरजिणिद वयणाव लंबीणं। जुज्जेज्ज उज्झमाणं, दड्ढं वोत्तुं न तुज्झपि।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2329
444
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org