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आवश्यकता होती है। कोई क्रिया एक क्षण में सम्भव नहीं है। क्रिया के लिए बहुत समयों को आवश्यक मानने से इस मत का नाम बहुरत है।
जमालि कुण्डपुर नगर में रहने वाले थे, माता का नाम सुदर्शना था, जो भगवान महावीर की बहन थी। ऐसा माना जाता है कि जमालि का विवाह भगवान महावीर की पुत्री प्रियदर्शना के साथ हुआ। उन्होंने भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की, तपस्या करने लगे, वे पारणे में अन्त–प्राप्त आहार का सेवन करते थे। एक बार उनका शरीर रोगाक्रान्त हो गया, पित्तज्वर से उनका शरीर जलने लगा। एक दिन वेदना से पीड़ित होते हुए शिष्य से बिस्तर बिछाने के लिए कहा - श्रमणों बिस्तर बिछाओ! कुछ देर बार उन्होंने शिष्य से पूछा, “शिष्य! बिस्तर हो गया?" उसने बिछाते-बिछाते उत्तर दिया - ""भन्ते! बिस्तर हो गया है।
जमालि सोने के लिए खड़ा हुआ, उसने जाकर देखा तो बिस्तर अभी बिछाया ही जा रहा था। यह सुनकर उनके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई - भगवान् क्रियमाण को कृत कहते हैं, यह सिद्धान्त मिथ्या है, मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि बिछौना किया जा रहा है, उसे कृत कैसे माना जा सकता है? उन्होंने तात्कालिक घटना से प्राप्त अनुभव के आधार पर यह निश्चय किया – क्रियमाण को कृत नहीं कहा जा सकता है, जो सम्पन्न हो चुका है, उसे ही कृत कहा जाता है, कार्य की निष्पत्ति अन्तिम क्षण में ही होती है, पहले-दूसरे आदि क्षणों में नहीं।
इस प्रकार का मत निश्चय करके उन्होंने अपने शिष्यों को कहा कि, “भगवान महावीर ऐसा कहते हैं - जो चल्यमान है, वह चलित है, जो उदीर्यमाण है, वह उदीरित है और जो निर्जीर्यमाण है, वह निर्जिर्ण है। किन्तु मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि यह सिद्धान्त मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष घटना है कि बिछौना जब तक बिछाया जा रहा है वह बिछा हुआ नहीं होता है। जब बिछाने की क्रिया निष्पन्न हो जाती है तब वह बिछ जाता है तथा बिछ जाने पर और कुछ करना शेष नहीं रहता है। अतः कृतमान को कृत नहीं कहा जा सकता। किये जाते हुए को 'कृतमान' तथा किये जा चुके को ही 'कृत' मानना यथार्थ है। इसी प्रकार जब तक चल रहा है तब तक 'चला हुआ' नहीं है किन्तु अचलित है, यावत् जिसकी निर्जरा हो रही है वह निर्जीर्ण नहीं है किन्तु अनिर्जीर्ण है।
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