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इस सिद्धान्त को समझने के लिए गौतमस्वामी ने भगवतीसूत्र में श्रमण महावीर से प्रश्न किया, "जो चल रहा है, वह चला गया, जो उदीरा जा रहा है, वह उदीरा गया, जो वेदा जा रहा है, वह वेदा गया, जो गिर रहा है, वह गिर गया, क्या इस प्रकार कहा जा सकता है?" भगवान महावीर ने उत्तर दिया, “हे गौतम! चलते हुए को चलित कहा जाता है, निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण कहा जाता है।
आगमोक्त यह कथन निश्चय नय की अपेक्षा से है। जैसे जिस आदमी को एक कोस चलना है, उसके 10 कदम चलने पर भी निश्चय नय से कहा जा सकता है कि वह चल चुका, क्योंकि उसने दस कदम की गति पूरी कर ली। जबकि व्यवहारनय से 'चल चुका' तभी कहा जायेगा जब वह गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर लेगा। पर जमालि एकान्तदृष्टि से व्यवहारनय को लेकर भगवान महावीर के मत का खण्डन करते हैं, उसकी समीक्षा इस प्रकार है -
जमालि का कथन था कि क्रियमाण को कृत मानने की आवश्यकता नहीं है। यदि क्रियमाण को कृत मान लिया जाय तो 'कृत को किया जा रहा है' यह अर्थ फलित होता है जो व्यवहार व व्याकरण दोनों दृष्टियों से त्रुटिपूर्ण है। जो वस्तु पहले से ही की जा चुकी है उसे पुनः करने की क्या जरूरत है। यदि कृत को भी करने की आवश्यकता पड़े तो फिर उस कार्य को तो सदा करते ही रहना होगा। उसकी कभी समाप्ति नहीं होगी।
क्रियमाण को कृत मानने पर समस्त क्रियाएँ व्यर्थ हो जायेंगी, जैसे घड़ा बनाने के लिए मिट्टी भिगोना, चाक घुमाना आदि क्रियाएँ व्यर्थ है, क्योंकि घट को तो क्रिया के प्रथम क्षण में ही बना हुआ मान लिया गया है।
क्रियमाण को कृत मानने पर कृत (विद्यमान) को ही क्रिया का आश्रय मानना पड़ेगा, पर इसमें पूर्वापर विरोध होगा, क्योंकि जो पदार्थ नहीं है (अविद्यमान), उनको उत्पन्न करने के लिए क्रिया की जाती है, विद्यमान वस्तु को करने की क्रिया नहीं करनी पड़ती है।
' आचार्य देवेन्द्रमुनि, जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
सक्खं चिय संथारो न कज्जमाणो कउत्ति में जम्हा। बेइ न जमालि सव्यं न, कज्जमाणं कयं तम्हा।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2308
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