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________________ जबकि सिद्धान्त यह है कि जो क्रियमाण है वह कृत है, वस्तु का अस्तित्व प्रथम क्षण से ही प्रारम्भ हो जाता 1 तिष्यगुप्त जीव प्रादेशिकवाद के प्रवर्तक हैं, जीवप्रादेशिक जीव के चरम प्रदेश को ही जीव मानते हैं, शेष प्रदेशों को नहीं। जैनदर्शन के अनुसार चेतन द्रव्य अखण्ड है, सर्वप्रदेश मिलकर ही जीव कहा जाता है। - आषाढ़भूति के शिष्य अव्यक्तवाद के अनुसार किसी भी वस्तु के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, सब कुछ अव्यक्त है, अनिश्चित है। जैन सिद्धान्त के अनुसार श्रद्धा (सम्यक्दर्शन) महत्त्वपूर्ण है, हर बात में संशय करना उचित नहीं है। अश्वमित्र समुच्छेदिकवाद प्रवर्तक । समुच्छेदकवादी प्रत्येक पदार्थ का सम्पूर्ण विनाश मानते हैं, वे एकान्त समुच्छेद का निरुपण करते हैं, जबकि निर्ग्रन्थ प्रवचन, सर्वनय सापेक्ष होता है। वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, वह द्रव्य से नित्य तथा पर्याय से अनित्य है । - गंग द्विक्रियवाद । इस मत के अनुसार एक ही क्षण दो क्रियाओं का अनुवेदन होता है, जैसे सर्दी गर्मी । किन्तु जैन सिद्धान्त यह कहता है कि समय सूक्ष्म है, अतः हम समय में विभाजन नहीं कर पाते, किन्तु एक समय में एक ही क्रिया होती 1 गुप्त त्रैराशिकवाद | इस वाद के अनुसार राशि तीन होती हैं जीव, अजीव और नोजीव | जैनागमों में दो राशियाँ बतलाई जीव और अजीव । - - Jain Education International (क) व्याख्याप्रज्ञप्ति, 9/33 (ख) (ग) गोष्ठामाहिल अबद्धिकवाद अर्थात कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं, उसके साथ एकीभूत नहीं होते। जबकि सिद्धान्तानुसार कर्म तथा जीव एकीभूत होते हैं, कुछ कर्म स्पर्श करते हैं, कुछ बन्ध जाते हैं।' इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर के जो सिद्धान्त हैं, उनके विपरीत इन श्रमणों के मन में शंकाएँ हुई, क्योंकि वे सिर्फ एक ही नय से उस बात को समझ रहे थे, तत्पश्चात् उन्होंने अपने मत स्थापित किये, जनता से भी उस मत पर श्रद्धा रखवाने का प्रयत्न किया। जिनवाणी में श्रद्धाशील स्थविरों ने उनके मतों का युक्तिपूर्वक निराकरण औपपातिकसूत्र, 122, व्या. मधुकरमुनि जी उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 165-170 - 436 - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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