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आचरण योग्य नहीं है, उसका निर्देश है। चतुर्थ अध्ययन में षट्जीवनिकाय का पाँचवें अध्ययन में श्रमण की भिक्षाचर्या का वर्णन है। छठे अध्ययन में आचार- गोचर सम्बन्धी विवेचन की गई है, जबकि सातवें अध्ययन में श्रमण के द्वारा कौनसी भाषा प्रयोग्य है, और कौन सी भाषा अप्रयोग्य रूप है, यह बताया है। आठवें अध्ययन में आचार धर्म के प्रति निष्ठावान बनने की प्रेरणा दी है, नवें अध्ययन में विनय सम्बन्धी वर्णन है जिसके अन्तर्गत समाधियों की चर्चा है, अन्तिम अध्ययन में भिक्षु के जीवन और दिनचर्या के बारे में विस्तृत चर्चा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह वह आगम है जिसमें श्रमणाचार का सजीव चित्रण हुआ है ।
नन्दीसूत्र
जिससे प्रमोद, हर्ष या आनन्द प्राप्त हो, उसे नन्दी कहते हैं अर्थात् जिसे प्राप्त करके आत्मा को आनन्द हो वह नन्दीसूत्र कहलाता है।' इस सूत्र में आत्मा की गरिमामय भाव-समृद्धि रूप पंचविध ज्ञान का सांगोपांग वर्णन है। इसकी रचना देववाचकगणी ने की है । यहाँ प्रश्न उठता है कि इसे आगम क्यों माना जाए, समाधान है कि प्रस्तुत आगम समग्र आगमों का स्रोत सर्वज्ञ तीर्थंकर की अर्थरूप से आगत आगमिक वाणी है अतः परम्परा से यह आप्त वचन है । 2
नन्दीसूत्र में पांच ज्ञानों का विस्तृत स्वरूप प्रतिपादित है । "पढ़मं नाणं तओ दया" इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान का महत्त्व अपेक्षाकृत अधिक है। इसमें प्रत्यक्षज्ञान तथा परोक्षज्ञान की चर्चा की गई है। नन्दीसूत्र का आगम साहित्य में विशेष महत्त्व रहा है। इसी सूत्र के आधार पर कतिपय आचार्यों ने दर्शन प्रधान ग्रन्थों की रचना की है जिसमें ज्ञान सम्बन्धी विषय-वस्तु इसी से ली गई है।
अनुयोगद्वारसूत्र
शब्द तथा अर्थ के योग को अनुयोग कहते हैं। 'अनु' उपसर्ग सहित 'योग' शब्द से अनुयोग निष्पन्न है। सूत्र या शब्द के अनुकूल अनुरूप अर्थात सुसंगत संयोग अनुयोग
है।
1 मूलसूत्र एक परिशीलन, आचार्य देवेन्द्रमुनि, पृ. 264
मूलसूत्र एक परिशीलन, वही, पृ. 268
धम्मकहाणुओगो, मुनि कन्हैयालाल जी कमल, पृ. 3
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