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से दिखाई देने वाली वस्तुओं का ही अस्तित्व होता है, यह सत्य नहीं है क्योंकि इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान परोक्ष ज्ञान है। इस प्रकार उन्होंने नारकों का अस्तित्व युक्तिपूर्वक सिद्ध किया।
इस प्रकार स्वर्ग-नरक की मान्यता गलत नहीं है। कर्मफल की मान्यता किसी न किसी रूप में प्रत्येक दर्शन ने स्वीकार की है। विज्ञान भी इस आधार पर शारीरिक, मानसिक उत्थान पतन की बात मानता है, यह तथ्य स्पष्ट है कि - दुष्ट कर्मों का प्रतिफल दुःख और सत्कर्मों की परिणति सुख के रुप में होनी चाहिए। स्वर्ग-नरक की मूल स्थापना कर्मफल की सुनिश्चितता प्रकट करने के लिए की गई है।
मेतार्य जी ने परलोक के अस्तित्व को नकारते हुए कई तर्क दिये - 1. चार्वाक् दर्शन शरीर नाश के साथ आत्मा का भी नाश मानता है, 2. एकात्मवादी सम्पूर्ण संसार में एक आत्मा ही मानते हैं, अतः उस एक आत्मा का संसरण संभव नहीं है, 3. देव और नारक प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते हैं, अतः परलोक नहीं है?
इस अध्याय में भगवान महावीर ने परलोक (पुनर्जन्म) के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए जो प्रमाण दिये, उनका विशद विवेचन किया है, जैसे कि जैनदर्शन आत्मा को अनेक, देहप्रमाण, व सक्रिय मानता है, तथा नित्यानित्य के रूप में स्वीकार करता है, जिससे परलोक का अस्तित्व सिद्ध होता है। परलोक का अस्तित्व मात्र जैनदर्शन ने ही मान्य नहीं किया, अपितु वैदिक दर्शन, बौद्ध सांख्य तथा न्याय-वैशेषिक दर्शन में भी स्वीकृत है। परलोक की सिद्धि पुनर्जन्म से संबंधित है।
वैदिक साहित्य में स्वर्ग-नरक का उल्लेख है, उपनिषदों में बताया है कि नरक लोक अन्धकार से आवृत्त है, उसमें आनन्द का नाम नहीं है।
बौद्ध दर्शन में, अभिधम्म आदि स्वर्ग, नरक, प्रेत संबंधी विचार मिलते हैं, पेतवत्थु में प्रेतों की रोचक कथाएँ दी हैं।
जैन दर्शन में जीव से संबंधित पुनर्जन्म, परलोक, पूर्वजन्म, भवान्तर, जन्मान्तर आदि अनेक शब्द प्रयुक्त हैं। वर्तमान में वैज्ञानिकों ने भी पुनर्जन्म के बारे में बहुत अन्वेषण किया है।
सर्वज्ञ (प्रत्यक्षज्ञानियों) द्वारा मान्य पुनर्जन्म के सिद्धान्त को दार्शनिकों व वैज्ञानिकों को भी स्वीकार करना पड़ रहा है। वर्तमान में पुनर्जन्म या परलोक को स्वीकार करना,
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