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मानव जाति की अनिवार्य आवश्यकता है। इसके बिना समाज एवं राष्ट्र में नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों को स्थिर नहीं किया जा सकता। आत्मा का अस्तित्व शरीर त्याग के बाद भी बना रहेगा, यह सत्य जन्म-जन्मान्तर में संचित शुभ-अशुभकर्मों को साथ लेकर अगले जन्म में जाता है, इस सत्य तथ्य को जानकर व्यक्ति इस जन्म में आध्यात्मिक विकास के लिए पलभर भी प्रमाद न करके श्रेष्ठता की दिशा में सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के पथ पर कदम बढ़ायेगा तथा कर्मों के बन्धन से आत्मा को मुक्त करने का चिन्तन करेगा।
इस प्रकार इस अध्याय में विशेषावश्यकभाष्य के गणधर में वर्णित देवों, नारकों व परलोक से संबंधित शंकाओं का श्री भगवान महावीर द्वारा दिये गए समाधान का जैन दर्शन तथा अन्य दर्शनों के संदर्भ में सम्यक् विवेचन किया गया है।
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