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________________ इसी प्रकार इस लोक के प्रत्यक्ष चेतन जीवों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सिद्ध है। इस तथ्य को आचार्य जिनभद्रगणि ने विशेष्यावश्यकभाष्य में इस प्रकार बताया "कोई जीव इस लोक में से मनुष्य रूप से मरकर देव होता है, तब उसे जीव का मनुष्य रूप इहलोक नष्ट हुआ और देवरूप परलोक उत्पन्न हुआ, किन्तु जीव-सामान्य तो अवस्थित ही है।" मुक्त जीव के विषय में भी कहा जा सकता है कि वह संसारी आत्मा के रूप में नष्ट हुआ, मुक्त आत्मा के रूप में उत्पन्न हुआ तथा जीवत्व धर्मों की अपेक्षा से जीव रूप में स्थित रहा। मुक्त जीव में भी उत्पाद, व्यय, घटित होता है, जैसे कि जीव प्रथम समय के सिद्ध रूप में नष्ट हुआ, द्वितीय समय के सिद्ध रूप में उत्पन्न हुआ, किन्तु द्रव्यत्व, जीवत्वादि धर्मों की अपेक्षा से अवस्थित है। अतः यह सिद्ध हुआ कि जीव (आत्मा) द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। समीक्षा प्रस्तुत अध्याय में मौर्यपुत्रजी की 'देवों के अस्तित्व सम्बन्धी शंका का, अकम्पितजी की नारक के अस्तित्व संबंधी शंका का तथा मेतार्य जी की 'परलोक के अस्तित्व संबंधी शंका का उल्लेख तथा भगवान महावीर द्वारा दिये गये समाधानों की चर्चा की गई है। मौर्यपुत्र जी ने अपनी शंका की पुष्टि के लिए कई तर्क दिये, जैसे 1. देव सामान्य-जन को प्रत्यक्ष क्यों नहीं दिखाई देते हैं? तथा 2. जो विमान आदि दिखाई देते हैं वे आग के गोले या स्वच्छ जल भी हो सकते है? भगवान महावीर ने उनके संशय का निवारण करते हुए यह बतलाया किज्योतिषी और व्यन्तर देव तो प्रत्यक्ष दिखते हैं, तथा वैमानिक देव भी तीर्थंकर के कल्याणक या संमवशरण में आते हैं तथा ये विमान है, इनमें जो रहने वाले हैं वे ही देव हैं। इस प्रकार उनकी शंका का समाधान किया। .. अकम्पितजी का नारकों के अस्तित्व के बारे में यह तर्क था कि चारों गतियों में मनुष्य, तिर्यञ्च, देवता प्रत्यक्ष है किन्तु नरक गति प्रत्यक्ष नहीं है, अतः कैसे माना जाये कि नारकों का अस्तित्व है? तब भगवान महावीर ने समाधान दिया कि भले ही नारक छद्मस्थ जीवों को प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। इन्द्रिय प्रत्यक्ष 1 आ. भिक्षु, नवपदार्थ, जैन श्वे. तेरापंथी महासभा, 1961, पृ. 36 2 विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1843 432 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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