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उत्पाद और व्यय को एक क्रम देता है किन्तु अस्तित्व की मौलिकता में कोई अन्तर नहीं आने देता। इस बिन्दु को पकड़ने वाले 'कूटस्थ नित्य' सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, तथा अस्तित्व में होने वाले परिवर्तनों को पकड़ने वाले 'क्षणिकवाद' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। जैनदर्शन ने इन दोनों को एक ही धारा में देखा है।
भगवान महावीर ने प्रत्येक तत्त्व की व्याख्या परिणामी-नित्यत्व के आधार पर की। जब उनसे पूछा गया कि आत्मा नित्य है या अनित्य? पुद्गल नित्य है या अनित्य? उन्होंने उत्तर दिया, पुद्गल व आत्मा का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता, इस अपेक्षा से वे नित्य है। परिणमन का क्रम कभी अवरूद्ध नहीं होता, इस दृष्टि से वे अनित्य हैं।
जीव नित्य पदार्थ है पर वह कूटस्थ नित्य नहीं, परिणामी-नित्य है, अर्थात् जीव शाश्वत होने पर भी उसमें परिणमन-अवस्थान्तर होते रहते हैं। जैसे - स्वर्ण द्रव्य अवस्थित रहते हुए उसके भिन्न-भिन्न आभूषण होते हैं, उसी प्रकार जीव पदार्थ स्थित रहते हुए उनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं। द्रव्य जीव उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त होता है। जैसे - सुवर्ण कंकण की चूड़ियों को नष्ट कर जब सुवर्ण हार बनाते हैं तब हार की उत्पत्ति होती है, कंकण का व्यय--नाश होता है, और सुवर्ण, सुवर्ण के रूप में ही रहता है, उसी प्रकार जब जीव युवा होता है तब यौवन की उत्पत्ति होती है, बाल्यभाव का व्यय होता है और जीव-जीव रूप ही रहता है। इन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को 'पर्याय' कहते हैं। जिस प्रकार जल कभी बर्फ और कभी वाष्प रूप होता है, उसी तरह एक ही मनुष्य बालक, युवक और वृद्ध होता है। ये आत्मा द्रव्य के अवस्थान्तर है।
जिस प्रकार स्पर्श गुण की अपेक्षा से एक ही पुद्गल कभी शीतल और कभी उष्ण होता है, ठीक उसी प्रकार एक ही मनुष्य कभी ज्ञानी और कभी मूर्ख, कभी दुःखी और कभी सुखी होता है, ये आत्मा के चेतनगुण की अवस्थाएँ हैं।'
ज्ञान गुण के अनुसार भी आत्मा परिणामीनित्य है। जैसे कि आत्मा अपने उपयोग से घट का ज्ञान करता है, तब उसे पट का ज्ञान नहीं होता, घट चेतना का जिस समय नाश होता है, उस समय पट चेतना उत्पन्न होती है, किन्तु इन दोनों अवस्थाओं में जीव रूप सामान्य चेतना तो विद्यमान है।
। घट-घट दीप जले, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 85
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