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वेदान्त सम्मत परिणामी नित्यवाद
वेदान्त दर्शन में ब्रह्म को एकान्त नित्य माना गया है। जीव के संबंध में विचार भेद है। आचार्य शंकर ब्रह्म को सत्य और जीवात्मा को मिथ्या (माया) मानते हैं, वह अनादिकालीन अज्ञान के कारण अनादि है किन्तु अज्ञान का नाश होने पर ब्रह्ममैक्य का अनुभव करती हैं, उस समय जीव भाव नष्ट हो जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मायिक जीव ब्रह्म रूप से नित्य है और माया रूप से अनित्य है।
. शंकराचार्य को छोड़कर प्रायः समस्त वेदान्ती ब्रह्म को विवर्त न मानकर परिणाम स्वीकार करते हैं, इस दृष्टि से जीव को परिणामी नित्य मानना चाहिए।
इस प्रकार कतिपय दार्शनिकों ने आत्मा को एकान्त नित्य माना है, कतिपय ने एकान्त अनित्य माना है। नित्य या अनित्य मानने वालों ने स्वर्ग-नरक आदि की कल्पना की है। पर यदि आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं, तब उनमें सर्वथा एकरुपता आ जायेगी, इससे लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक की व्यवस्था नहीं घट सकेगी, और एकान्त अनित्य मानते हैं तो एकरुपता का सर्वथा नाश हो जायेगा, भेद ही भेद शेष रहेगा। अतः जीव को एकान्त नित्य तथा एकान्त अनित्य मानना दोषयुक्त है। अतः जैनदर्शन ने जीव (आत्मा) को नित्यानित्य माना है।' जैनदर्शन के अनुसार जीव की नित्यानित्यता
इस संसार में कोई भी वस्तु एकरुपता लिए हुए नहीं है। जिसका अस्तित्व है, वह बहुरूप है। जैनदर्शन ने अनेकरूपता के कारणों पर गहराई से चिन्तन किया, तत्पश्चात् एक सिद्धान्त की स्थापना की, उसका नाम है - परिणामी नित्यत्ववाद।
इस सिद्धान्त के अनुसार विश्व का कोई भी तत्त्व सर्वथा नित्य अथवा अनित्य नहीं है। प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य, इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है। तत्व का अस्तित्व ध्रुव है, इसलिए वह नित्य है। ध्रुव परिणमन-शून्य नहीं होता और परिणमन ध्रुव शून्य नहीं होता, इसलिए वह अनित्य भी है। प्रत्येक तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - इन तीनों धर्मों का समवाय है। उत्पाद और व्यय – ये दोनों परिणमन के आधार बनते हैं और धौव्य उनका अन्वयीसूत्र है। वह उत्पाद और व्यय दोनों स्थिति में भी रहता है। ध्रौव्य,
। (क) गणधरवाद (प्रस्तावना) पृ. 101
(ख) ज्ञानमुनि जी मा., हमारे समाधान, पृ. 68-71
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