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आत्मा के नित्यता की सिद्धि एवं जैन दर्शन के अनुसार आत्मा के द्रव्य अपेक्षा से नित्यत्व एवं पर्याय अपेक्षा से अनित्यत्व का प्रस्तुतीकरण
आत्मा अर्थात् जीव को नित्य माना जाए या अनित्य, इस संबंध में दार्शनिकों में मतभेद है। भूतवादी आत्मा को अनित्य मानते हैं, क्योंकि वे शरीर को ही आत्मा मानते हैं। उनके अनुसार शरीर के नाश होते ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है, परन्तु जो दार्शनिक भूतों एवं शरीर से आत्मा को अतिरिक्त मानते हैं, उनमें आत्मा के नित्यानित्यत्व के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। सांख्य दर्शन का कूटस्थनित्यवाद
सांख्यदर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है, अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार का परिणाम या विकार संभव नहीं है। प्रकृति को परिणामी मानता है, परन्तु आत्मा को अपरिणामी ही मानता है। संसार और मोक्ष भी आत्मा के नहीं प्रत्युत् प्रकृति के माने गए हैं। सुख-दुःख, ज्ञान भी प्रकृति के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। इस प्रकार वह आत्मा को सर्वथा अपरिणामी स्वीकार करता है।
____ कर्ता न होने पर भी भोक्ता आत्मा को ही माना गया है, इस भोग के आधार पर आत्मा में परिणामित्व घटित हो जाने की संभावना से कुछ सांख्य विचारकों ने भोग को आत्मा का धर्म मानने से इन्कार कर दिया। नैयायिक-वैशेषिकों का नित्यवाद
__ न्याय और वैशेषिक दार्शनिक द्रव्य और गुण को भिन्न मानते हैं। उनके अनुसार सुख-दुःख, ज्ञान आदि आत्मा के गुण हैं, साथ ही वे इन गुणों को अनित्य मानते हैं। परन्तु उन ज्ञानादि गुणों की अनित्यता के कारण उन्हें आत्मा की अनित्यता स्वीकार नहीं है, उनकी दृष्टि में आत्मा नित्य है। बौद्ध सम्मत अनित्यवाद
तथागत बुद्ध ने पुद्गल-जीव को एकान्त अनित्य माना है। प्रत्येक क्षण में विज्ञान आदि. नये-नये चित्तक्षण उत्पन्न होते हैं और पुद्गल इन विज्ञान क्षणों से भिन्न नहीं है, इस प्रकार पुद्गल या जीव अनित्य है। द्रव्य रूप से नित्यत्व नहीं है, परन्तु बौद्ध भी सन्ततिनित्यता स्वीकार करते हैं। कार्य-कारण की परम्परा को सन्तति कहते हैं।
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