________________
व्यक्ति कभी अजातशत्रु, कभी परशुराम और कभी राम के रूप में दर्शकों को दिखाई देता है, उसी प्रकार लिंग शरीर, विभिन्न शरीर ग्रहण करके मनुष्य, देव, तिर्यञ्च नारक आदि नाना रूपों में परिलक्षित होता है। इससे सिद्ध होता है कि सांख्यदर्शन देवलोक व नरकलोक के अस्तित्व को मानता I
योगदर्शन में पुनर्जन्म की अवधारणा
योगदर्शन के 'व्यासभाष्य' में पुनर्जन्म की सिद्धि करते हुए कहा गया है "नवजात शिशु को भी भयंकर पदार्थों को देखकर भय और त्रास उत्पन्न होता है। जबकि इस जन्म में तो उसके कोई संस्कार अभी तक नहीं पड़े हैं अतः पूर्वजन्म के कर्मरूप संस्कारों को मानना आवश्यक है। इससे पूर्वजन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है ।"
पांतजल योगदर्शन में कहा गया है "जीव जो कुछ प्रवृत्ति करता है, उसके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं। इन संस्कारों को कर्म - संस्कार कहा जाता है । संस्कारों में संयम करने से पूर्वजन्म का ज्ञान होता है। इस प्रकार पूर्वजन्म सिद्ध होने से पुनर्जन्म स्वतः सिद्ध हो जाता है । "2
वैज्ञानिक दृष्टि से पुनर्जन्म की अवधारणा
पुनर्जन्म के प्रश्न की खोज वैज्ञानिकों ने भी की, जिसे परामनोविज्ञान कहा गया । मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा के अस्तित्त्व को स्पष्ट करने के लिए पुर्वजन्म और पुनर्जन्म को जानने के लिए प्रयत्न किए।
परामनोवैज्ञानिकों की चार मान्यताएँ हैं
1. विचारों का संप्रेषण
2.
3.
-
Jain Education International
-
दूसरों तक पहुंचा सकता है।
-
एक व्यक्ति अपने विचारों को, बिना किसी माध्यम के,
प्रत्यक्ष ज्ञान एक व्यक्ति बिना किसी माध्यम के किसी वस्तु को साक्षात् जान लेता है।
पूर्वाभास भविष्य में घटित होने वाली घटना का पहले ही आभास हो जाता है।
। कर्मविज्ञान, देवेन्द्रमुनि, भाग 1, वही, पृ. 69-70
(क) संसरति निरुपभोगं भावैराधिवासितं लिङ्गम्' सांख्यकारिका 40
(ख) पुरुषार्थ हेतुकमिदं निमित्त नैमित्तिक प्रसंगेन ।
प्रकृतेविभुत्व योगान्, नटवत् व्यवतिष्ठते लिंगम ।। - सांख्यकारिका - 42
2 योगदर्शन व्यासभाष्य 2/9 4/10- उधृत - कर्मविज्ञान, भाग 1, पृ. 71
426
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org