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आत्मा की अमरता की धारणा पुनर्जन्म की धारणा को बल देती है, गीता में बताया गया है कि "यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन अर्थात् चिरन्तन है।" गीता एक अति प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें पुनर्जन्म की व्याख्या सुन्दर एवं प्रभावशाली ढंग से हुई है।
आत्मा का पुनर्जन्म क्यों होता है? इस प्रश्न के उत्तर में गीता में बताया गया कि आत्मा का पुनर्जन्म मोक्ष की प्राप्ति के लिए होता है। मोक्ष को चरम लक्ष्य माना गया है । मोक्ष ऐसी अवस्था है जिसकी प्राप्ति आत्मा एक जीवन के कर्मों से ग्रहण नहीं कर सकती है। मोक्ष की प्राप्ति अनेक जन्मों के प्रयासों से सम्भव होती । इसलिए जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती है तब तक आत्मा को जन्म-जन्मान्तर में भटकना पड़ता है। जब आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तब आत्मा का पुनर्जन्म समाप्त हो जाता है ।
सांख्यदर्शन में पुनर्जन्म की अवधारणा
सांख्यदर्शन की यह मान्यता है कि स्थूलशरीर के द्वारा शुभाशुभ कर्म किये जाते हैं, किन्तु स्थूलशरीर कर्मों के संस्कारों का अधिष्ठाता नहीं है, उसका अधिष्ठाता है सूक्ष्म शरीर । सूक्ष्म शरीर का निर्माण पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच तन्मात्राओं, महत्त्व और अहंकार से होता है। मृत्यु होने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता I प्रत्येक संसारी आत्मा के साथ यह सूक्ष्म शरीर रहता है, जिसे आत्मा का लिंग भी कहते हैं। यही पुनर्जन्म का आधार है ।
सांख्यकारिका में बताया गया है "लिंग शरीर बार-बार स्थूल शरीर को ग्रहण करता है व पूर्वगृहीत शरीरों को छोड़ता रहता है, इसी का नाम संसरण (संसार) है। मृत्यु होने पर सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं होता, किन्तु पुरुष (आत्मा) सूक्ष्म शरीर के आश्रय से पुराने स्थूल शरीर को छोड़कर नये स्थूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। जब तक उसका सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हो जाता, तब तक उसका संसार में आवागमन होता रहता है।"
इस वाक्य से स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन भी पुनर्जन्म को स्वीकार करता है।
लिंग शरीर के निमित्त से पुरुष का प्रकृति के साथ सम्पर्क होने पर जन्म-मरण का चक्र प्रारम्भ हो जाता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है जैसे रंगमंच पर एक ही
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