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जन्म लिये हुए व्यक्ति की मृत्यु तथा मृत व्यक्ति का जन्म निश्चित है। “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युधुवं जन्म मृतस्य च।"
देहाभिमानी जीव को इस देह में कुमार, युवा और वृद्धावस्था रूप स्थूल शरीर का विकार, आत्मा में अज्ञान से अनुभूत होता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना, यह सूक्ष्म शरीर का विकार भी आत्मा में अज्ञान से ही अनुभूत होता है, किन्तु धीर पुरुष इस विकार से मोहित नहीं होते हैं।'
जैसे – मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।'
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहा कि – हे अर्जुन! हम लोग बहुत से जन्म धारण कर चुके हैं।'
भगवद्गीता में ही परलोक को स्वीकार करते हुए बताया गया है कि “मृत्यु के समय मनुष्य जैसा चिन्तन करते हुए देह त्याग करता है, उसे तदनुसार ही परलोक प्राप्त होता है। मृत्यु के समय सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण में जिसकी वृद्धि होगी, उसी के अनुसार यथाक्रम उत्तम ऊर्ध्वलोक में या कर्मासक्त मनुष्यलोक में अथवा पशु-पक्षी आदि की निम्न योनि में जन्म होता है।
श्री कृष्ण का कथन है कि - मैं द्वेषकारी, क्रूर, नराधम, अशुभकर्मा लोगों को अनवरत जन्म-मृत्यु पथ में आसुरी अर्थात् व्याघ्र-सर्प आदि और कृमि-कीटादि योनियों में डालता हूँ।
वहीं पुनर्जन्म को सिद्ध करते हुए बताया गया है कि “वैदिक क्रिया-परायण लोग यज्ञ द्वारा निष्पाप होकर स्वर्ग में जाते हैं। विपुल भोग के पश्चात पुण्य क्षीण होने पर वे पुनः मर्त्यलोक में पवित्र और धनवान या योगी के कुल में जन्म ग्रहण करते हैं।
1 गीता, अध्ययन 2, श्लोक 27 2 गीता, 20/13 3 "वासांसि जीर्णानि यथा विहाय", गीता 2/22 4 बहुनि मे व्यतीतानि जन्मानि' गीता 4/5 5 गीता 8/6 6 “यदा सत्वे ............ गीता 18/14-16 7 "त्वानहं द्विषतः ........... गीता 13/19-20
विद्यां मां ............. गीता 9/20-21
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