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पालित्रिपिटक में बताया गया है "कर्म से विपाक (कर्मफल) प्राप्त होता है, फिर विपाक से कर्म समुद्भूत होते हैं और कर्मों से पुनर्जन्म होता है, इस प्रकार यह संसार चलता रहता है। "1
"मज्झिम निकाय" में कहा गया है कि अकुशल कर्म (अशुभ) दुर्गति का कारण होता है।
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परलोक के अस्तित्व को स्वीकारते हुए कर्मफल के भोग को एक कड़ी के रुप में
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मानते हैं।
जैसे कि "पापकर्मी इस लोक में और परलोक में जाकर भी संतप्त होता है। "3 "पुण्यशील मनुष्य का परलोक में पुण्य वैसे ही स्वागत करते हैं जैसे कि घर आए बन्धु का स्वागत होता है। 4
“हिंसा करने वाले को परलोक में भी सुख प्राप्त नहीं होता ।" "
"बूरे भाव को रखकर यदि कोई भिक्षु मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह कोकालिक भिक्षु की भांति पदमनरक' में जाता है। इसी प्रकार 'बुद्ध की शरण में आने वाले को देवलोक में उत्पन्न होने वाला बताया गया है।'
जैसे
बौद्ध दर्शन में कर्म-फलन के रुप में परलोक की चर्चा की गई है। वह परलोक के अस्तित्त्व को स्वीकार करते हुए कर्मफल के भोग की एक कड़ी के रुप में मानता है। कठिन से कठिन दान देने वाले, दुष्कर कार्य करने से मूर्ख लोग भिन्न होते हैं। सन्तों और मूर्खों की गति अलग-अलग होती है। मूर्ख नरक में जाते हैं और सन्त स्वर्गगामी होते हैं।
7 धम्मपद समयसुत्त, 1 /4/7
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संयुक्त निकाय, मच्छरीसुत, 1/4/2
कुशल (शुभ) कर्म सुगति का और
यथा
बौद्ध अभिधम्म में सत्वों का विभाजन तीन भूमियों में किया गया है कामावचर, रुपावचर व अरुपावचर उनमें नारक, तिर्यञ्च प्रेत, असुर ये चार कामावचर भूमियाँ अपायभूमि है, अर्थात् उनमें दुःख की प्रधानता है। मनुष्यों तथा चातुम्महाराजिक,
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। 'कम्माविपाका वत्तन्ति, विपाको कम्म सम्भवो ।
कम्मा पुनभवो होत्ति एवं लोको पवतवीति (पालित्रिपिटक), उद्धृत कर्मविज्ञान, भाग 1, पृ. 64
2 मज्झिमनिकाय, 3/4/85
3 धम्मपद 4/11
4 धम्मपद 6/7
5 धम्मपद 1/22
6 धम्मपद, कोकालिक सुत्त, 6/1/10
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