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1. यदि हमारा पूर्वभव होता तो हमें उसकी कुछ न कुछ तो स्मृतियाँ होती? 2. यदि दूसरा जन्म होता तो आत्मा की ग-िआगति हम क्यों नहीं देख पाते?
पहली शंका का हम अपने बाल्य-जीवन से ही समाधान कर सकते हैं। बचपन की घटनाएँ हमें स्मरण नहीं आती तो इसका अर्थ यह नहीं कि हमारी शैशव-अवस्था हुई न हो? एक-दो वर्ष के नव-शैशव की घटनाएँ स्मरण नहीं होती, तो भी अपने बचपन से किसी को सन्देह नहीं होता। वर्तमान जीवन की यह बात है तब पूर्वजन्म की युक्ति को कैसे अर्थहीन कह सकते हैं? पूर्वजन्म की भी स्मृति होती है विशिष्ट शक्ति के द्वारा, जिसे जातिस्मरणज्ञान कहा जाता है।
दूसरी शंका का समाधान है कि -- आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता है, क्योंकि वह अमूर्त है, दृष्टिगोचर नहीं होता है, तथा वह सूक्ष्म है, इसलिए शरीर में प्रवेश करता हुआ या निकलता हुआ उपलब्ध नहीं होता।
नहीं दिखने मात्र से किसी वस्तु का अभाव नहीं होता। सूर्य के प्रकाश में नक्षत्र-गण नहीं देखा जाता। इससे उसका अभाव थोड़े ही माना जा सकता? अन्धकार में कुछ नहीं दिखता, तब क्या यह मान लिया जाए कि यहाँ कुछ नहीं है। ज्ञान-शक्ति की एकदेशीयता से किसी भी सत्-पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार न करना उचित नहीं होता।
अन्य दर्शनों में पुनर्जन्म को किस प्रकार मानते हैं, इसकी चर्चा की गई है। चार्वाक दर्शन में पुनर्जन्म
इस दर्शन के अनुसार आत्मा अमर नहीं है, शरीर के नाश के साथ ही आत्मा की स्थिति का भी अन्त हो जाता है। वर्तमान जीवन के अतिरिक्त कोई दूसरा जीवन नहीं है, पुनर्जन्म को मानना भ्रम है। यदि पुनर्जन्म होता तो, जैसे - हम वृद्धावस्था में अपनी बाल्यावस्था के अनुभवों को स्मरण करते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भी अतीत जीवन के अनुभवों का स्मरण अवश्य होता। इससे प्रमाणित होता है कि आत्मा के पुनर्जन्म का तथ्य मिथ्या है। जिस प्रकार शरीर मृत्यु के उपरान्त भूतों में मिल जाता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी भूतों में विलीन हो जाती है। कहा भी है “शरीर के भस्म होने पर आत्मा कहाँ से आयेगी।"
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