SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवों में व्याप्त विषमता भी किसी अदृश्य कारण की ओर संकेत करती हैं, यह अदृश्य कारण पूर्व-जन्मों में निष्पन्न कर्मों का परिपाक है। इस प्रकार जीवों के जीवनस्तर से भी पुनर्जन्म सिद्ध होता है। __ सर्वार्थसिद्धि में उल्लेख है कि -- पूर्वभव का स्मरण होने से नैसयिक जीवों में उनका वैर दृढ़तर हो जाता है, जिससे वे कुत्ते-गीदड़ की तरह एक-दूसरे का घात करने लगते हैं। पूर्वभव स्मरण ही पुनर्जन्म का प्रबल समर्थक है।' इस प्रकार कई तथ्यों से पुनर्जन्म व परलोक का अस्तित्त्व सिद्ध होता है। _ विशेष्यावश्यकभाष्य में आचार्य जिनभद्रगणि ने बताया है कि नारकों को प्रकृष्ट . पाप फल के तथा देवों को उत्कृष्ट पुण्यफल के भोक्ता मानना चाहिये। जैनेत्तर दर्शन के परलोक व पुनर्जन्म सम्बन्धी चर्चा भारतीय संस्कृति में मानव शरीर को एक सराय की एवं आत्मा को पथिक की उपमा दी गयी है। यह पंचतत्वों से बना शरीर तो क्षणभंगुर है, किन्तु आत्मा शाश्वत है। यह कभी नष्ट नहीं होती। आत्मा की अमरता सिद्ध करने पर यह निश्चित हो जाता है कि परलोक व पुनर्जन्म का अस्तित्व भी है। ___ हमारी दृष्टि में जन्म और मृत्यु प्रत्यक्ष है, जन्म भी एक घटना है और मृत्यु भी एक घटना है, पर मानव यह जानने के लिए सदियों-सदियों से प्रयत्नशील रहा है कि जन्म से पूर्व क्या और मृत्यु के पश्चात् क्या? इसका उत्तर प्रत्यक्ष ज्ञानियों ने दिया - जन्म के पहले भी जीवन होता है और मृत्यु के बाद भी जीवन होता है, यह वर्तमान जीवन तो मध्यवर्ती विराम है। इस सिद्धांत का विरोध करने वालों ने इस तथ्य को अस्वीकार किया, उनके अनुसार “न पूर्वजन्म होता है और न पुनर्जन्म होता है, केवल वर्तमान का जन्म ही होता है। इस प्रकार दो धाराएँ बन गयी। एक आत्मा की नित्यता को मानने वाली धारा और दूसरी आत्मा की नित्यता को न मानने वाली धारा। जिन दार्शनिकों ने आत्मा को स्वीकार नहीं किया, उन्होंने पुनर्जन्म को भी स्वीकार नहीं किया। पुनर्जन्म की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों की प्रायः दो प्रधान शंकाएँ सामने आती हैं - 'सर्वार्थसिद्धि, पृ. 208 2 गणधरवाद, वही, पाप-पुण्य चर्चा, पृ. 142 3 आचार्य महाप्रज्ञ, घट-घट दीप जले, आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, 1984, पृ. 54. 414 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy