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________________ अधिकतम 33 सागरोपम की होती है। आयु समाप्त होने के बाद इन्द्रादि को भी अन्य योनियों में जन्म लेना पड़ता है। इसके विपरीत पापात्मा व अन्यायपूर्ण कार्य करने वाले जीव मरकर नरकगति में उत्पन्न होते हैं। वहाँ नारक एक-दूसरे को मार-काटकर दुःख देते रहते हैं तथा परमाधार्मिक देव भी नारकों को असहनीय दुःख देते हैं । यहाँ जन्म लेने के बाद अपनी आयु पर्यन्त दुःख भोगना पड़ता है । ' इस प्रकार जैन दर्शन आत्मवादी है, आत्मा को शाश्वत मानने पर पुनर्जन्म को मानना अनिवार्य है। जैनागमों में स्पष्ट रूप से उल्लेख आता है जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म की परम्परा चलती है, यह विश्व की स्थिति है।' जीव अपने ही प्रमाद से भिन्न-भिन्न जन्मान्तर करते हैं। पुनर्जन्म कर्मसहित जीवों के ही होता है । आयुष्यकर्म के पुद्गल - परमाणु जीव में ऊँची-नीची, तिरछी-लम्बी और छोटी-बड़ी गति की शक्ति उत्पन्न करते हैं, इसी के अनुसार जीव नये जन्मस्थान में उत्पन्न होते हैं।' भगवान महावीर ने फरमाया है को पोषण देने वाले हैं। - विशेषावश्यकभाष्य में पुनर्जन्म को सिद्ध करते हुए बताया जिस प्रकार युवक का शरीर बालक शरीर की उत्तरवर्ती अवस्था है, वैसे ही बालक का शरीर पुर्वजन्म के बाद में होने वाली अवस्था है। यह देह प्राप्ति की अवस्था है, इसका जो अधिकारी है, वह आत्मा है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये पुनर्जन्म के मूल वर्तमान के जो सुख - दुःख हैं, वे अन्य सुख-दुःखपूर्वक होते हैं। सुख-दुःख का अनुभव वही कर सकता है, जो पहले उनका अनुभव कर चुका है। यदि पूर्वजन्म में इनका अनुभव न हुआ होता तो नवोत्पन्न प्राणियों में ऐसी वृत्तियाँ नहीं मिलती । 5 दसवेआलियं, 8/39 • विशेषावश्यकभाष्य गाथा Jain Education International मिलापचन्द कटारिया, कल्याण, वही, लेख - जैन धर्म में जीवों का परलोक, पृ. 482 आयारो, 12/6 भगवती, 2 /110 ठाणं, 9/40 413 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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