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मूलसूत्र संख्या की दृष्टि से चतुर्विध हैं - उत्तराध्ययन, आदि। इनमें जो विषय वर्णन है, उस दृष्टि से उन्हें अपेक्षाकृत मूलसूत्र कहना उचित है, जैन धर्म और दर्शन का मूलभूत आधार - सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यगतप। इनका क्रमशः वर्णन इस प्रकार - अनुयोगसूत्र, नन्दीसूत्र, दशवैकालिक और उत्तराध्ययनसूत्र। इन चारों में क्रमशः सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप का वर्णन और विवरण है, इसी दृष्टि से इन आगमों को मूलसूत्र की अभिधा से अभिहित किया है, ऐसा मेरा विनम्र अभिमत है।
स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय मूलसूत्र 4 मानते हैं - 1. उत्तराध्ययन, 2. दशवैकालिक, 3. नन्दीसूत्र व 4. अनुयोगद्वार, जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा छह मूलसूत्र मानती है उनमें महानिशीथ एवं जीतकल्प को लिया गया है।
उत्तराध्ययनसूत्र
भगवानी महावीर ने पावापुरी में निर्वाण प्राप्त करते समय अन्तिम प्रवचन के रूप में उत्तराध्ययनसूत्र का उपदेश दिया था। उत्तर शब्द का अर्थ है - श्रेष्ठ, उत्तम। इसके एक-एक अध्ययन उत्तम और श्रेष्ठ हैं, इसलिए उत्तराध्ययन कहा जाता है।
उत्तराध्ययनसूत्र पूर्ण रूप से अध्यात्मशास्त्र है। दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ इसमें बहुत से आख्यानों का वर्णन है। इसमें जीव, अजीव, कर्मवाद, षटद्रव्य, नवतत्त्व, पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा प्रभृति सभी विषयों का समुचित रूप से प्रतिपादन हुआ है। यह आगमन केवल धर्मकथानुयोग का प्रतिपादक है अपितु उक्त अनुयोगों के अतिरिक्त तीनों अनुयोगों का सुन्दर संगम है। इसके अर्थ प्ररूपक भगवान महावीर हैं जबकि उन अर्थों को सूत्रबद्धकर्ता के रूप में है। इस अपेक्षा के आधार पर अंग बाह्य आगमों में रखा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र चतुर्विध मूलसूत्र में एक ऐसा आगम है जो अपने विषय-वस्तु की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उत्तर और अध्ययन इन दो शब्दों के योग से उत्तराध्ययन शब्द निष्पन्न हुआ है।
जिस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के 36 पद हैं उसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र के 36 अध्ययन हैं, इस आगम को विषयवस्तु की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया गया है।
' जैन आगम साहित्य, मनन और मीमांसा, वही, पृ. 290
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