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जिस प्रकार पर्वत के ऊपरी भाग में स्थित जड़ भग्न वृक्ष ऊपर से भारी होने के कारण वहाँ से गिर पड़ता है वैसे ही कर्मभार से भारी जीव आयुष्य रूपी जड़ के कटने से पुनर्जन्म में नारक तिर्यञ्चादि निम्न गतियों में पतित होता है ।
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कर्मफल की दृष्टि से जीव का सर्वयौनिक पुनर्जन्म सम्भव बताते हुए कहा गया है- 'संसारी स्थावर प्राणी भी ( जन्मान्तरों में ) स हो जाते हैं, त्रस प्राणी भी स्थावर होकर जन्मते हैं। प्रत्येक जीव प्रत्येक योनि में (नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव के रूप में) उत्पन्न हो सकता है । '
पुनर्जन्म के अनुसार परलोक की धारणा भी विकसित हुई, परलोक के अन्तर्गत स्वर्ग-नरक को माना गया। जैन दर्शन भी परलोक की अवधारणा प्रस्तुत करता है, जैसे कि पाप करने वाला, अपने जीने के लिए दूसरों को कष्ट देने वाला तथा तुच्छ एवं असंयमी जीव नरक में जाने वाला माना गया है। इसके विपरीत सदाचरण करने वाले और अहिंसा का व्यवहार करने वाले जीवों को स्वर्गगामी माना गया है। यह विशेषावश्यकभाष्य में बताया है । 2
जैन दर्शन में समस्त संसारी जीवों का समावेश चार गतियों में किया गया है । जैन दर्शन में देव तथा नरकलोक के विषय में निम्नानुसार वर्णन मिलता है देवों के चार निकाय हैं
भवनपति
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अधोलोक में भवनों में रहने वाले ।
वाणव्यन्तर मध्यलोक में गिरिकन्दरा एकान्त स्थान पर रहने वाले।
ज्योतिषी
चन्द्र-सूर्य आदि ज्योति प्रदान करने वाले ।
वैमानिक ऊर्ध्वलोक में विमान में निवास करने वाले ।
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भवनपति निकाय के देवों का निवास जम्बूद्वीप में स्थित मेरु पर्वत के नीचे उत्तर तथा दक्षिण दिशा में है। ये भवनों में रहते हैं, अतः इन्हें भवनति देव कहते हैं । ये 10 प्रकार के हैं
1 डा. एस.आर. व्यास, पुनर्जन्म का सिद्धान्त, सं. 1960, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, पृ. 117-118
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जह नारगपवन्नापगिट्ठ, पावफल भोइणो तेणं ।
सुबहुग पुण्णफलभुंजो, पवज्जियव्वा सुरगणा वि ।। विशेषा. गाथा 1874
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“ चउव्विहा देवा पण्णता”, भगवतीसूत्र, शतक 2, उद्दे. 7
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