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भगवती सूत्र में भगवान गौतम स्वामी को बताते हैं - हे गौतम! तू मेरे साथ चिर संश्लिष्ट है (मेरे साथ चिरकाल से स्नेह से बद्ध है), गौतम! तू मेरे साथ चिरसंस्तुत है, चिरपरिचित है तथा चिरसेवित, प्रीतिवंत है। हे गौतम! इससे (पूर्व के) देव-भव में और उससे अनन्तर मनुष्य-भव में तेरा मेरे साथ सम्बन्ध था। इस भव में मृत्यु के पश्चात् इस शरीर के छूट जाने पर हम दोनों तुल्य और एकार्थ वाले हो जायेंगे।'
इस प्रकार जैन आगमग्रन्थों व चरित्त काव्यों में बार-बार पुनर्जन्म का उल्लेख हुआ है। जैन धर्म एक आचारप्रधान धर्म है, जिसमें अहिंसा व सदाचार को बहुत महत्व दिया गया है। इनके अनुसार कर्मदोष की निवृत्ति के लिए जीवात्मा को अनेक योनियों में जन्म लेना पड़ता है। पुष्पदन्त के 'जसहर चरियं' में महाराज यशोधर की माता चन्द्रावति द्वारा आटे के मुर्गे की बलि देने के परिणामस्वरूप हुई भावहिंसा के कारण उन दोनों के मयूर, नेवला, कुत्ता, मत्स्य, बकरी, भंसा, मुर्गा आदि अनेक योनियों में जन्म लेकर नाना प्रकार के कष्ट भोगने का वर्णन है।'
पुनर्जन्म को समझने के लिए कर्म चेतना समझना आवश्यक है। कर्म के द्वारा हम अतीत के जन्म को समझ सकते हैं और भावी जन्म को भी जान सकते हैं। व्यक्ति के वर्तमान जन्म को देखकर जाना जा सकता है कि उसका पूर्वजन्म किस प्रकार का रहा है? एक पशु को देखकर यह जाना जा सकता है कि उसने पूर्वजन्म में कैसे कर्म किये हैं? जो व्यक्ति बहुत कपट करता है, माया-मृषा, कुट माप-तोल करता है, वह पशु योनि में उत्पन्न होता है। जैसे पूर्व आचरण और बद्ध कर्मों के आधार पर वर्तमान आचरण के आधार पर यह निर्धारण जीव की व्याख्या की जा सकती है, वैसे ही वर्तमान आचरण के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति कहाँ, किस योनि में उत्पन्न होगा।'
पुनर्जन्म के परिप्रेक्ष्य में कर्मफलन की प्रक्रिया कार्य करती है। उदाहरणार्थ - 'अमुक मरने वाले व्यक्ति ने जो सुखकर अथवा दुःखकर कार्य अर्थात कर्म किया वह उसी के साथ परभव में जाता है।
1 भगवती सूत्र, शतक 14, उद्दे. 7 2 डा. श्री सजनारायण पाण्डेय, कल्याण (पुनर्जन्म विशेषांक), लेख-जैन मत में पुनर्जन्म तथा कर्मसिद्धान्त, पृ.
466 3 आचार्य महाप्रज्ञ, अध्यात्मविद्या, सन् 1994, जैन विश्व भारती, लाडनूं, पृ. 54
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