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ज्ञान से नारकों को तथा उनकी वेदना को प्रत्यक्ष देखते है, अतः नारकों का अस्तित्व सिद्ध होता है।
वेदवाक्यों के सम्यक् अर्थ से सिद्धि
यदि वेदों में नारकों का अस्तित्व नहीं होता तो वे यह नहीं बताते कि “जो शूद्रों का अन्न खायेगा वह नरक में जायेगा। दूसरा वाक्य है कि "न ह वै प्रेत्य नारकाः सन्ति" यह वाक्य नारकों के अस्तित्व को नकारता है पर यह वाक्य अभावसूचक नहीं है, इसमें यह बताया है कि परलोक में मेरु आदि की तरह नारक शाश्वत नहीं है। यहाँ जो पापाचरण करते हैं, वे मरकर नारक होते हैं। इसलिए ऐसे पाप नहीं करना चाहिए कि जिससे नरक में जाना पड़े। यह संदेश दिया गया है। इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से तथा वेदवाक्यों के समन्वय से नारकों का अस्तित्व सिद्ध होता है। जैन एवं जैनेत्तर दर्शनों में पुनर्जन्म (परलोक) सम्बन्धी चर्चा जैन दर्शन में पुनर्जन्म सम्बन्धी चर्चा
दार्शनिक जगत् में यह सिद्धान्त सर्वमान्य है कि किसी भाव या सत् का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत् का उत्पाद नहीं होता। सत् की जैन दार्शनिक परिभाषा है "उत्पाद, व्यय और धौव्य से युक्त होना।” प्रत्येक द्रव्य में प्रतिक्षण परिवर्तन और परिणमन होते रहते हैं, जो परिवर्तित होती है उसे पर्याय कहते हैं। जब एक पर्याय नष्ट होती है तभी दूसरी पर्याय उत्पन्न हो जाती है, किन्तु वस्तु की सत्ता नष्ट नहीं होती है, वह ध्रुव है। इसी प्रकार आत्मा द्वारा एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर धारण करना पुनर्जन्म कहलाता है। एक जन्म के शरीर का व्यय (नाश) और दूसरे जन्म के शरीर का उत्पाद (उत्पत्ति) यही पुनर्जन्म है।'
भगवान महावीर ने निर्द्वन्द्व भाव से पुनर्जन्मवाद को प्रतिष्ठित किया। जैन दर्शन का प्राचीनतम आगम आचारांग सूत्र का प्रारम्भ भी इसी संदर्भ से होता है - “मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है। मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली नहीं है। मैं पूर्वजन्म में कौन था?
'नारको वै जायते यः शुद्रान्नमश्नाति, विशेषावश्यकभाष्य, टीका, पृ. 103 2 बलभद्र जैन, जैन धर्म का सरल परिचय, सन् 1996, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, पृ. 9
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