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"घड़ा” सिद्ध होता है वैसे ही इन्द्रियज्ञान में भी किसी एक धर्म का इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने से उस धर्मक विशिष्ट वस्तु की सिद्धि होती है। दूसरा कारण यह है कि - परोक्ष ज्ञान में जिस प्रकार संकेत स्मरण की आवश्यकता होती है, वैसे ही इन्द्रियज्ञान में भी पूर्वोपलब्ध स्मरण सहकार आवश्यक है। अन्यथा जिसने कभी घड़ा न देखा हो, उसे भी 'यह घड़ा है' ऐसा ज्ञान हो जाना चाहिए, लेकिन होता नहीं। अतः परोक्ष है।
तीसरा कारण यह है कि - इन्द्रियज्ञान में निमित्त की अपेक्षा होती है। जैसे - अग्नि को जानने के लिए धुंआ निमित्त है, यह अनुमानात्मक परोक्ष है। वैसे ही इन्द्रियज्ञान में भी आत्मा को इन्द्रियों की अपेक्षा होने से इन्द्रियाँ निमित्त हैं।'
पाँच ज्ञान हैं, उनमें से केवलज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान और अवधिज्ञान प्रत्यक्ष हैं क्योंकि इन्द्रियों एवं मन की सहायता के बिना ये ज्ञान होते हैं, शेष मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं। अवधि मनःपर्यव एवं केवलज्ञान से नारकों की सिद्धि होती है, अतः प्रत्यक्ष है। नारक सिद्धि के लिए अनुमान
जिस प्रकार नारक सिद्धि के लिए यह अनुमान दिया है कि जघन्य तथा मध्यम कर्मफल के भोक्ता मनुष्य और तिर्यञ्च हैं, वैसे ही प्रकृष्ट पापकर्म फल के भोक्ता कोई होना चाहिए, तब सिद्ध होता है कि वे नारक हैं। हम भी देखते हैं कि उत्कृष्ट सुख का फल भोग देवों को मिलता है, वैसा ही प्रकृष्ट दुःख का फल भोग किसे प्राप्त होता है। मनुष्य-तिर्यञ्चों में दृष्टिगत नहीं है, जैसे - तिर्यञ्च में ताप, भय, भूख, प्यास आदि का दुःख होता है पर अल्प मात्रा में सुख भी होता है। मनुष्य को मानसिक और शारीरिक अनेक प्रकार के सुख और दुःख दोनों होते हैं। मात्र नारकी में ही तीव्र परिणामी दुःख सतत् लगा रहता है, इस अनुमान से नारक की सिद्धि होती है। सर्वज्ञ कथित होने पर नारक सिद्धि
सर्वज्ञ अर्थात् राग-द्वेष मोह रहित जो केवलज्ञान के धारी है। जिनके वचन में असत्य नहीं, मोहादि दोषरहित होने के कारण जिनके वचन त्रिकाल सत्य हैं। वे अपने
1 (क) जो पुण अणिंदिउ च्चिय, जीवो सव्वप्पिहाण विगमाओ।
सो सुबहुयं वियाणाइ, अवणीयधरो जहा दहा।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1895 (ख) पुव्वोव्वलद्ध संबंध सरणओ वानलो व्व धूमाओ।।
अहव निमित्तंतरओ, निमित्तभक्खस्स करणाइं।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1897 2 पावफलस्स पगिठरस, भोइणो कम्मओऽवसेस व्व।
संति धुवं तेऽभिमया, नेरइया अह मई होज्जा।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1899
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