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स्वयं कुछ नहीं देखते किन्तु उसके द्वारा मानव देखता है, वैसे ही इन्द्रियाँ भी द्वार हैं अर्थात् करण हैं, उसके द्वारा कर्ता जीव उपलब्धि करता है।'
यदि यह शंका करें कि इन्द्रियों को ही आत्मा मान लिया जाये, आत्मा को अलग मानने में क्या लाभ है? तब इसका समाधान निश्चित है कि आत्मा इन्द्रियों से भिन्न हैं। हम वस्तु को इन्द्रियों से जान लेते हैं फिर इन्द्रियों का व्यापार समाप्त हो जाता है, किन्तु उस वस्तु की स्मृति तो बनी रहती है और कई बार आँख-कान खुले होने पर मन की अस्थिरता के कारण हम उस वस्तु को देख-सुन नहीं पाते। इन कारणों से स्पष्टतः ज्ञात होता है कि आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है।
. पुनः यह प्रश्न होता है कि आत्मा यदि इन्द्रियों की सहायता नहीं लेती हैं तो अल्प ज्ञान ही जान सकेंगी, अतः ऐसा ज्ञात होता है कि अतीन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा इन्द्रियज्ञान अधिक जानता है। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि - केवलज्ञान या अतीन्द्रियज्ञान ऐसा ज्ञान है कि उसमें किसी इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती। जैसे - घर में बैठकर हम कुछ पदार्थों को जान सकते हैं पर खुले आकाश में रहकर हम बहुत कुछ जान सकते हैं। वैसे ही जीव के जब ज्ञान दर्शन के समस्त आवरण दूर हो जाते हैं तब जीव बिना किसी मर्यादा के बहुत अधिक जान व देख सकता है।
अन्य दार्शनिक इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं जबकि जैनदर्शन उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कहता है। प्रत्यक्ष शब्द में जो अक्ष शब्द है उसका अर्थ आत्मा करते है, लेकिन अन्य दर्शन अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय मानते हैं और जो इन्द्रियजन्य हो, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। परन्तु यहाँ इन्द्रियज्ञान को परोक्ष और आत्मज्ञान को प्रत्यक्ष कहने का समर्थन किया है।
व्यवहार में भी इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष माना जाता है जबकि सर्वज्ञ भगवान द्वारा उसे परोक्ष कहा गया है, क्योंकि इन्द्रिय द्वारा वस्तु के अनन्त धर्मों में से किसी एक रुपादि धर्म का ही ज्ञान होता है, अतः वह अनुमान के समान परोक्ष है। जैसे - अनुमान ज्ञान में किसी एक कृतक्त्व आदि धर्म के द्वारा कोई एक अनित्यत्वादि धर्म से विशिष्ट
1 मुत्ताइ भावओ नो वलद्धिमतिंदियाई कुंभा व्य।
उवलंभद्दाराणि, ताई जीवो तदुवलद्धा।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1893 2 तदुवरमे वि सरणओ, तव्वावारे वि नोवलंभाओ।
इन्दियभिन्नो नाया, पंचगवक्खोवलद्धा वा।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा, 1894
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