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प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं तथा उनकी अनुमान से भी सिद्धि होती है। किन्तु 'नारक' शब्द केवल पढ़ने या सुनने में आता है। अतः इसका अस्तित्व कैसे माना जाये ? वह प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता है। अतः कैसे स्वीकार करें कि नारकों का अस्तित्व है? 1
समाधान
नारक प्रत्यक्ष है, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी वीतराग प्रभु अपने ज्ञान से अन्य जीवादि पदार्थों की तरह नारकों को भी देखते हैं, किन्तु सामान्य छद्मस्थ प्रत्यक्ष नहीं देख सकते, अतः उनको शंका होती है। जैसे सिंह, शरभ, हंस आदि प्राणियों को जो दुर्लभता से दिखाई देते हैं, किन्तु फिर भी उन्हें अप्रत्यक्ष ( है ही नहीं) नहीं कहा जा सकता। इस संसार में कई देश, गाँव, नगर, नदी व समुद्र हैं, उनको सब लोग नहीं देख सकते, किन्तु किसी न किसी को तो प्रत्यक्ष है, इसी प्रकार सर्वज्ञ को नारक प्रत्यक्ष होने से उन्हें अप्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता ।
यदि यह शंका करें कि नारक चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं हैं तब उनको प्रत्यक्ष कैसे कहा जाता है? तब इसका समाधान इस प्रकार दिया कि इन्द्रिय से जो प्रत्यक्ष दिखता है वह उपचार से प्रत्यक्ष कहलाता है, पर वास्तविक प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय से होने वाला है । इन्द्रियज्ञान को उपचार प्रत्यक्ष इसलिए कहा जाता है क्योंकि धूम जैसी बाह्यवस्तु के ज्ञान की उसमें अपेक्षा नहीं रहती है, जैसे अनुमान में अग्नि के ज्ञान के लिए धूम की अपेक्षा है । वस्तुतः इन्द्रियज्ञान परोक्ष है क्योंकि आत्मा को वस्तु का साक्षात् ज्ञान नहीं होता, बल्कि इन्द्रियों के द्वारा होता है। अनुमान के समान होने से वह परोक्ष है। वास्तविक प्रत्यक्ष इन्द्रियातीत ज्ञान (केवलज्ञान ) है । 2
यदि आत्मा इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ या वस्तु को जानती है, तब आत्मा को उपलब्धिकर्ता न मानकर, इन्द्रियों को मान सकते हैं। फिर इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष हो सकता
| किन्तु इन्द्रियों को उपलब्धिकर्ता नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन्द्रियाँ घटादि पदार्थ की तरह पौद्गलिक और अचेतन हैं। जब उपलब्धिकर्ता नहीं है तब इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष भी नहीं कह सकते। इन्द्रियाँ मात्र उपलब्धि कराने का साधन हैं । जैसे
गवाक्ष
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1 जे पुण सुइ मेत्त फला, नेरइयत्ति किय ते गहेयव्वा ।
सक्खमणुमाणओ वीऽवणुलभा भिन्न जाईया।। - विशेष्यावश्यक भाष्य गाथा 1889
2 (क) ज कासइ पच्चक्खं, पच्चक्खं तं पि घेप्पड़ लोए ।
जह सीहाइ दरिसणं, सिद्धं न य सव्व पच्चक्खं ।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा, 1891 (ख) उवयार मेत्तओ तं, पच्चक्खमणिदियं तत्तं । - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1892
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