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________________ 1. जातिस्मरणज्ञानी प्राप्त पुरुष अपने पूर्वभव का ज्ञान प्राप्त कर यह बताते हैं कि वे देव थे। 2. .. कुछ तपस्वियों को तप के प्रभाव से देव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। कई साधक विद्या, मंत्र, उपयाचना द्वारा देवों से अपने कार्य की सिद्धि करवाते हैं। (जैसे कृष्ण वासुदेव ने अपनी माँ देवकी की इच्छा पूर्ण करने के लिए तेला तप किया, और देव द्वारा कार्य सिद्धि की।) कुछ मनुष्यों में ग्रह-विकास अर्थात् भूत-पिशाचकृत विक्रिया दिखाई देती है। (उस समय मानव न कर सकने योग्य कार्य भी कर लेता है।) तप, दानादि क्रिया से उपार्जित उत्कृष्ट पुण्य का फल मिलना चाहिए। 'देव' यह सार्थक पद है, जैसे कि गुणसम्पन्न गणधर और ऋद्धिसम्पन्न चक्रवर्ती आदि ये संसार में 'देव' कहलाते हैं, पर ये तब देव कहलाते हैं जब मूख्य रूप से देव हों। यदि कोई मुख्य सिंह न हो तो उपचार से भी सिंह नहीं कह सकते हैं, वैसे ही मूल रूप से यदि देव नहीं हो तो देव शब्द सार्थक नहीं हो सकता। अतः देव सार्थक शब्द है। वेदवाक्यों का सम्यक् अर्थ समझ लेने से भी देवों का अस्तित्व सिद्ध होता है। जैसे कि वेदों को यदि देवों का अस्तित्व मान्य न हो तो वेदों में अनेक स्थलों पर लिखा गया है कि “स्वर्ग इच्छुक अग्निहोत्र करें। तब यह वाक्य अयुक्त सिद्ध होगा। क्योंकि यदि देवों का अस्तित्व न हो तो स्वर्ग किसे मिलेगा? यह लोक मान्यता है कि दानादि का फल स्वर्ग में मिलता है, देवों के अभाव में यह मान्यता भी व्यर्थ सिद्ध होगी। “स एष यज्ञायुधी यजमानोऽजसा स्वर्ग लोक गच्छति” से देवों का अस्तित्व सिद्ध होता है। को जानाति मायोपमान........ वाक्य से देवों का अभाव नहीं बताया गया है, बल्कि यह समझाया है कि जब देवों की ऋद्धि-सिद्धि भी अनित्य है, तब दूसरी सिद्धियाँ तो अनित्य ही होंगी, मानव को अनासक्त रहने के लिए यह वाक्य दिया है, जिससे व्यक्ति इन सिद्धियों में डूबकर अपना लक्ष्य न भूल जाये। 1 सन्ति देवा - जातिस्मरकथनात् कस्यचित् प्रत्यक्षदर्शनात् विद्यामंत्रोपयाचन सिद्धेः, ग्रहविकारात् उत्कृष्ट पुण्यसंचय फलभावात् देवाः इति अभिधानात् देवानां सिद्धि। - विशेष्यावश्यक, टीका, पृ. 783 2 देवाभावे विफलं, जमग्गिहोत्ताइयाण किरिपाणं। सग्गीयं जन्नाणं य, दाणाइ फलं च तदजुत्तं ।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1882 401 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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