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और हवा भी गमन करते हैं किन्तु वे विमान नहीं कहलाते, कारण कि वे रत्न-निर्मित नहीं
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हैं। यदि इन्हें मायिक मानें तो प्रतिप्रश्न होता है कि ऐसी माया करने वाले कोई देव ही होगा? मनुष्य ऐसी माया कर ही नहीं सकते हैं। मायावी के बिना माया कैसे सम्भव है? किन्तु ये मायिक नहीं है क्योंकि माया क्षणिक हैं वह क्षण भर में नष्ट हो जाती है, जबकि ये विमान सदा रहते हैं । 1
देवों के अस्तित्व को सिद्ध करने का एक प्रमाण यह भी है, जैसे इस लोक में जो व्यक्ति प्रकृष्ट पाप या गलत आचरण करते हैं, उनको उसका फल भोगने के लिए परलोक में नारकों का अस्तित्व माना गया है। वैसे ही इस लोक में जो दान धर्म आदि उत्कृष्ट पुण्य करते हैं उनके लिए उसका फल भोगने के लिए देवों का अस्तित्व स्वीकार करना आवश्यक है। मनुष्यलोक में भी सुखी - दुःखी प्राणी हैं, किन्तु उन्हें सुख साथ रोग - जरा-मरण का दुःख होता है और दुःख के साथ अल्प सुख रहता ही है किन्तु प्रकृष्ट दुःख भोग नरक में और उत्कृष्ट सुख का भोग देवयोनि में ही होता है । '
देवों की सिद्धि प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से होती है इस लोक में देवों के एक - देशरुप ज्योतिष्क देवों की निश्चित संत्ता है, यह प्रत्यक्षसिद्ध है। तथा अनुमान द्वारा भी सिद्ध है लोक में देवकृत अनुग्रह और पीड़ा (दुःख) दोनों हैं, जैसे - मनुष्यलोक में मनुष्यों का अच्छा बुरा करने में समर्थ राजा का अस्तित्व माना जाता है, उसी प्रकार देव भी किसी को धन-सम्पत्ति आदि वैभव दे देता है और किसी के वैभव का नाश कर देता है, इसलिए राजा के समान देवों का अस्तित्व मानना चाहिए।
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अन्य अनुमान है कई जातिस्मरणज्ञानी आप्त पुरुष अपने पूर्वभव का ज्ञान करके स्वयं देव थे ऐसा कहते हैं। कितने ही विद्या - मन्त्र आदि के द्वारा देवों को वश में करके उनके द्वारा अपने इच्छित कार्य की सिद्धि करते हैं। अथवा कितने ही मनुष्यों में ग्रह विकार अर्थात् भूत-पिशाचकृत विक्रया दिखती है । इत्यादि हेतुओं से देवों के अस्तित्त्व की सिद्धि होती है ।
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1 होज्ज मई माएयं, तहा वि तक्कारिणो सुरा जे ते ।
न य मायाइ विगारा, पुरं व निच्चोवलभाओ ।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1873
2 (क) सुबहुग पुण्ण फल भुंजो, पवज्जियव्वा सुरगणा वि । - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा, 1874
(ख) यन्नारका विविधपापफलान्यदन्ति, यद्भुञ्जते च शुभपुण्यफलानि देवाः । महावीर देशना, श्लो. 9, पृ. 186
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