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________________ 3. ज्योतिषी 4. वैमानिक इन चार निकायों में से भवनपति देव अधोलोक में, वाणव्यन्तर व ज्योतिषी देव मध्यलोक में और वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक में निवास करते हैं। तीर्थंकर की देशना सुनने चारों निकायों के देव आते हैं। इससे भी देवों का अस्तित्व सिद्ध होता है।' दूसरा प्रमाण है - सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिष्क देव। इन्हें प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से देखता है, अतः देव- प्रत्यक्ष है। अनुमान से सिद्ध करना चाहें तो, मनुष्यलोक में देवकृत अनुग्रह और पीड़ा दोनों दिखाई देते हैं, यदि देवता किसी पर प्रसन्न हो जाये तो वैभव प्रदान करते हैं और रुष्ट हो जाते हैं तो वैभव का नाश करते हैं। जैसे - राजा, प्रजा का भला-बुरा करता है। यदि सूर्य-चन्द्र को विमान माने तो उसमें रहने वाला कोई प्राणी होना चाहिए, अन्यथा उसे आलय नहीं कहा जा सकता। जैसे नगर में बने आलयों में मानव रहते हैं, इसीलिए वे आलय कहलाते हैं। इसी प्रकार सूर्य-चन्द्र यदि आलय हो तो उनमें रहने वाले जो प्राणी हैं वे ही देव हैं। उन विशिष्ट आलय या विमानों में सामान्य मानव नहीं रह सकता। यह तर्क हो सकता है खाली मकान को भी आलय कहते हैं अतः वे विमान भी खाली (शून्य) हो सकते हैं, किन्तु यह तर्क उचित नहीं है क्योंकि जो मकान हैं वे पूर्णरूप से शून्य नहीं हो सकते। उनमें कोई न कोई तो रहता ही है, इस न्याय से चन्द्रादि विमानों में निवास करने वाले देव सिद्ध होते हैं।' . यदि यह मानें कि सूर्य अग्नि का गोला और चन्द्र स्वभावतः स्वच्छ जल हो अथवा यह भी सम्भव है कि ज्योतिष्क विमान प्रकाशमान रत्नों के गोले हों या किसी मायावी की माया हो। पर इन्हें रत्नों के गोले न मानकर विमान मानना ही उपयुक्त है, क्योंकि ये विद्याधरों के विमान के समान हैं, तथा आकाश में भ्रमण करते हैं, यूं तो आकाश में बादल (क) पेच्छसु पच्चक्खं चिय, चउबिहे देव संधाए।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा, 1869 (ख) देवाश्चतुर्निकायाः, तत्त्वार्थसूत्र, 4/1, सुखलाल जी संघवी, वाराणसी, पृ. 95 2 सन्त्येढ़ देवाः लोकस्य तत्कृतानुग्रहोपघात दर्शनात्। - विशेष्यावश्यक, टीका, पृ. 780 3 (क) आलयमेत्तं च मई पुरं व, तव्वसिणो तह वि सिद्धा। जे ते देव त्ति मया, न य निलया निच्च परिसुण्ण।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1871 (ख) को जानइ व किमेयं त्ति होज्ज निस्संसयं विमाणाई रयणमय न भोगमणादिहं जह विज्जहाराईणं।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1872 398 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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