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दूसरी युक्ति यह है कि -- संसार में जो विषमता व विविधता दिखती है, भले ही वह शरीर की हो या बुद्धि की हो। वे सब भिन्नताएँ इस जन्म की ही हैं, नहीं, बल्कि वह परलोकगत हैं, जिस जीव ने जैसे कर्म किये, तदनुसार यह सब साधन-सामग्री प्राप्त हुई
है।
प्रायः लोग कहते हैं कि कृषि, व्यापार आदि क्रियाओं का फल तत्काल मिल जाता है, कोई व्यक्ति चोरी करता है, पकड़े जाने पर दण्ड भोगता है, यह प्रत्यक्ष है तब यह कैसे माने कि परलोक है? यह नियम नहीं है कि इस भव में किये गये कर्मों का तत्काल फल मिल जाये और परभव में नहीं मिले। यह कर्मों पर निर्भर करता है, कुछ कर्म अन्तर्मुहुर्त के बाद फल देना प्रारम्भ कर देते हैं और कुछ दिनों, महिनों, वर्षों के बाद अपना फल देते हैं। जैसे – कृष्ण वासुदेव के लघुभ्राता गजसुकुमाल को 99 लाख जन्मों के पश्चात् अपने कर्मों का फल भोगना पड़ा था। इस परम्परा से स्पष्ट हो जाता है कि - कर्म परभव में भी भोगने होते हैं। यह सिद्ध होता है इसभव की तरह ही परभव है।
परलोक का सद्भाव सिद्ध करने वाला - जातिस्मरणज्ञान है। कई जातिस्मरणज्ञानी आप्त पुरुष अपने पूर्वभव का ज्ञान करके 'मैं देवता था ऐसा कहते हैं।' इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि परलोक है।
वेदों में परलोक का अभाव नहीं माना गया है क्योंकि यदि अभाव मानते तो 'स्वर्ग के इच्छुक को अग्निहोत्रादि करना चाहिए' यह पद व्यर्थ होता तथा दानादि का जो व्यवहार चल रहा है, वह भी नहीं होता। इसलिए स्पष्ट है कि वेदों को परलोक का अभाव इष्ट नहीं है।
इस प्रकार मेतार्य जी को कई युक्तियों द्वारा श्रमण भगवान महावीर ने परलोक के अस्तित्व को स्पष्ट किया।
गणधर मौर्यपुत्र की देवलोक सम्बन्धी शंका व समाधान
वैदिक परंपरा के ग्रन्थों में देवों या देवलोक के विषय में एक मत नहीं हैं। प्राचीन कल्पना के अनुसार देव द्यु और पृथ्वी की सन्तानें हैं। उषा को देवों की माता कहा गया
महावीर देशना, श्लोक 9, पृ. 234 2 असइ व परम्मिलोए, जमग्मि होताई सग्गकामस्स तदसंबद्धं सत्वं, दाणाइ फलं च लोअम्मि।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1970
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