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________________ सामान्य चेतना दोनों अवस्थाओं में विद्यमान है। एतदर्थ विज्ञान में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सिद्ध होता है। परलोकगत जीवों के बारे में यह कथन सत्य है कि कोई जीव इस लोक में से जब मनुष्य रूप से मरकर देव होता है तब उस जीव का मनुष्य रूपी इहलोक नष्ट हुआ और देवरूपी परलोक उत्पन्न हुआ, किन्तु जीव सामान्य तो अवस्थित है। शुद्ध द्रव्य की अपेक्षा से उस जीव को इहलोक या परलोक नहीं कहते, किन्तु मात्र 'जीव' कहते हैं। इस प्रकार जीव को उत्पाद-विनाश और ध्रुव स्वभाव वाला मानने से परलोक सिद्ध होता है।' यदि यह प्रश्न हो कि वस्तु को उत्पाद, व्यय स्वरुप ही माने किन्तु ध्रौव्यगुणयुक्त न माने? क्योंकि वस्तु की उत्पत्ति होने से पहले वह वस्तु नहीं थी, तब उससे पहले उसे विद्यमान कैसे मानें? पर इस प्रश्न में तथ्य नहीं है क्योंकि सर्वथा असत् वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है, तथा जो सत् है उसका सर्वथा विनाश नहीं होता। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में तीनों गुण होते हैं। जैसे सुवर्णपिण्ड की गेंद थी उसे तोड़कर हार बनाया गया, हार की उत्पत्ति हुई और गेंद का नाश हुआ, इन दोनों अवस्थाओं में सुवर्णपिण्ड स्थित रहा। ऐसे ही जीव भी त्रयात्मक होने से मृत्यु के बाद भी कथंचित अवस्थित है, अतः परलोक का अभाव नहीं माना जा सकता। परलोक का अस्तित्त्व जीवों के सुख-दुःख भोग से भी होता है - इस संसार में जीव नाना प्रकार के कर्मों का बन्ध करते हैं। कोई नारकी योग्य कर्मों का बन्ध करते हैं तो कोई देवयोनि योग्य। यह तथ्य सबको ज्ञात है, अब यदि परलोक न माना जाये तो इसी भव में ही देवों के सुख और नारकों के दुःख का अनुभव नहीं किया जा सकता। उनके सुख और दुःख के भोग के लिए क्रमशः देव और नरकयोनि पृथक् से माननी पड़ेगी, यह योनि का पार्थक्य ही इस लोक से भिन्न परलोक की सिद्धि करता है।' 1 (क) घड़ चेयणया णासो, पडचेयणया समुब्भवो समय। . संताणोणावत्था, तहेह परलोअ जीवाणं।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1966 (ख) मणुएह लोग नासो, सुराइ परलोग संभवो समयं जीवतयाऽवत्थाणं, नेह भवो नेय परलोओ।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1967 2 तोऽवत्थियरस केण वि, विलओ धम्मेण भवणमन्नेण। सबुच्छेओ न मओ, संववहारो वरोहाओ।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा - 1969 महावीर देशना, श्लोक 8, पृ. 233 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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