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आत्मा को एकान्त नित्य माना जाये, तो आत्मा में कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व घटित नहीं हो सकता, क्योंकि नित्य वस्तु सदा एक रूप रहती है, और यदि आत्मा कर्ता न हो तो परलोक सिद्ध नहीं होगा, आत्मा कर्म करेगी ही नहीं, अतः फल भोग भी नहीं होगा।
इस तर्क का उचित समाधान श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार दिया कि - आत्मा को अनित्य पर्यायापेक्षा की अपेक्षा से बताया है क्योंकि वह उत्पत्तिशील है। जैसे विज्ञान उत्पत्तिशील होने से अनित्य है। वस्तु का स्वभाव उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, अर्थात किसी भी वस्तु में मात्र उत्पाद ही नहीं होता। जहाँ उत्पाद है वहाँ ध्रौव्यत्वभी है। अतःएव यदि उत्पत्ति के कारण वस्तु कथंचित् अनित्य कहलाती है, तो ध्रौव्य के कारण कथंचित नित्य भी कहलायेगी।
जैसे - घट विनाशी और अविनाशी दोनों है, मिट्टी के पिण्ड का गोल आकार और उसकी शक्ति ये दोनों पर्यायें जिस समय नष्ट होती हैं, उसी समय वह मिट्टी का पिण्ड घटाकार और घटशक्ति रूपी पर्याय स्वरूप से उत्पन्न होता है। इस प्रकार घट उत्पाद और विनाश होने से अनित्य है किन्तु पिण्ड में रहे रूप-रस-गंध-स्पर्श और मिट्टी रूप द्रव्य स्थित रहता है, इस अपेक्षा से घट नित्य है। इस प्रकार पूर्वावस्था की व्यय और अपूर्व अवस्था की उत्पत्ति घट में होने से वह विनाशी कहलाता है, किन्तु उसका रुप, रस तथा मिट्टी दोनों अवस्था में ज्यों की त्यों है, अतः अविनाशी है। संसार की समस्त वस्तुएँ नित्य भी हैं और अनित्य भी हैं। विज्ञान भी उत्पत्तिशील होने से अविनाशी भी है अतः विज्ञान से अभिन्न आत्मा भी अविनाशी सिद्ध होती है, आत्मा नित्य है किन्तु पर्याय बदलते रहने से परलोक की सिद्धि होती है।
विज्ञान नित्यानित्य किस प्रकार होता है? जैसे - जीव का विशेष उपयोग घट में है तो उस समय घट विज्ञान कहलायेगा, वह उपयोग जब घट से हटकर वस्त्र में लगता है तब घट चेतना का नाश होगा, तथा पट चेतना उत्पन्न होती है। तथापि जीव रूप
1 'मण्णसि विणासि चेओ, उप्पत्तिमदादिओ जह कुंभो - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1961 2 (क) रुव-रस-गंध-फासा, संखा संठाण-दब्ब-सत्तीओ।
कुंभोत्ति ज जाओ, ताओ पसूई-विच्छित्ति-धुवधम्मा। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1963 (ख) इह पिंडो पिंडोगार-सत्ति पज्जाय विलय समकालं
उप्पज्जई कुंभागार - सत्ति पज्जाय रुवेण।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1964 (ग) एवं उप्पाय-व्यय-धुव सहावं मयं सव्वं ।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1965
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