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________________ होती है और वह पूर्वोक्त कर्म का भोक्ता होता है। इस प्रकार सन्तति की अपेक्षा से पुद्गल में कर्तृत्व और भोक्तृत्व पाये जाते हैं।' किन्तु सांख्य दर्शन पुरुष को अकर्ता मानता है, उसके अनुसार सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप आदि कर्म पुरुष के नहीं होते, मोक्ष भी पुरुष को नहीं होता। ये सभी कार्य प्रकृति के होते हैं, इस प्रकार सांख्यदर्शन का पुरुष निष्क्रिय है। किन्तु भोक्ता जरूर माना है। इस कथन की समीक्षा करें तो ज्ञात होता है कि, यदि पुरुष निष्क्रिय, उदासीन एवं तटस्थ है तब वह भोक्ता कैसे कहा जा सकता है? जो कर्म करता है फल भी उसी को मिलेगा, कर्म अन्य व्यक्ति करे और उसका फल अन्य व्यक्ति को मिले, ऐसा नहीं होता। जैनदर्शन में जीव के कर्तृत्व व भोक्तृत्व का वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता है। उत्तराध्ययन में “कम्मा णाणाविहा कट्ट" अनेक प्रकार के कर्म करके, “कडाणकम्माण न मोक्ख अत्थि” किए हुए कर्मों को भोगे बिना मुक्ति नहीं है। इत्यादि उद्धरण मिलते हैं। सांख्य दर्शन को छोड़कर प्रायः समस्त दर्शन आत्मा को सक्रिय मानते हैं।' इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मद्रव्य को सर्वगत और निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता है। आत्मा और विज्ञान नित्यानित्य है परलोक का अस्तित्व नहीं है, इस तथ्य के लिए मेतार्य जी एक तर्क रखते हैं - यदि जीव को विज्ञानमय अर्थात् ज्ञानगुण से युक्त मानों, तो विज्ञान अनित्य है, वह नष्ट हो जाता है, उसके साथ ही जीव भी नष्ट हो जायेगा, तब परलोक किसे होगा? यदि जीव 'को विज्ञान से भिन्न मानों, तो जीव ज्ञानी नहीं कहलायेगा। जैसे - जड़ वस्तु में उपयोग गुण न होने से वह अज्ञानी है।' ' गणधरवाद, दलसुखभाई, पृ. 104-105 2 ज्ञानमुनि जी मा., हमारे समाधान, श्री शालिग्राम जैन प्रकाशन समिति, खरड़, पृ. 66 3 जीवो विन्नाणमओ, तं चाणिच्चं ति तो न परलोगो। अह विन्नाणादण्णो, तो अणभिण्णो जहागासं।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1959 393 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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