________________
तरह के स्पर्श आदि की अनुभूति नहीं होनी चाहिए, परन्तु शरीर के हर भाग में स्पर्श आदि की अनुभूति होती है, जैसे - शरीर के किसी एक भाग पर सूई चुभाने से सम्पूर्ण शरीर में वेदना की अनुभूति होती है। अतः आत्मा अणुरूप नहीं, बल्कि शरीर-परिमाण
आत्मा को व्यापक मानने पर भी समस्या होगी कि - सूक्ष्म जीवों के शरीर में व्याप्त नहीं सकने से वह शरीर के बाहर रहेगी? पर ऐसा होता नहीं है। क्योंकि आत्मा के गुण शरीर के बाहर उपलब्ध नहीं होते। आत्मा संकुचित-विस्तार स्वभाव वाली है, उसे जिस तरह का साधन मिलता है, उसमें अपने आत्म-प्रदेशों को फैला देती है। जैसे - दीपक अपने प्रकाश से पूरे कमरे को जगमगा देता है, परन्तु जब उसी दीपक को छोटी सी कटोरी के नीचे रखा जाता है, तो वह उतने से स्थान को प्रकाशित कर पाता है। इसी तरह आत्म-प्रदेश भी स्वभाव से संकोच-विस्तार वाले होते हैं। अतः संसारी आत्मा
शरीरव्यापी है।
आत्मा के निष्क्रियत्व की समीक्षा
आत्मा कर्ता एवं भोक्ता है या नहीं, इस सम्बन्ध में सभी दार्शनिक एकमत नहीं हैं। उपनिषदों में आत्मा का कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों उपलब्ध होते हैं। उपनिषदों में जीव के कर्तृत्व व भोक्तृत्व का वर्णन है। श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा है - यह जीवात्मा फल के लिए कर्मों का कर्ता है और किए हुए कर्मों का भोक्ता भी है। बृहदारण्यक उपनिषद् में जीवात्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व को प्रकट किया है - शुभ काम करने वाला शुभ बनता है और अशुभ काम करने वाला अशुभ।'
नैयायिक-वैशेषिकों ने आत्मा में कर्तृव्य और भोक्तृत्व दोनों धर्म स्वीकार किये हैं। अनात्मवादी बौद्ध पुद्गल को कर्ता और भोक्ता मानते हैं - उनके मत में नाम-रुप का समुदाय पुद्गल या जीव है। एक नामरुप से दूसरा नामरुप उत्पन्न होता है। जिस नामरुप ने कर्म किया, वह तो नष्ट हो जाता है, किन्तु उससे दूसरे नामरुप की उत्पत्ति
जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 278
श्वेताश्वतर उपनिषद - 5/7 'वृहदारण्यक उपनिषद - 3/3/13 - पुण्यों वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन।
392
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org