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आत्मा (जीव) को अनेक मानने का दूसरा प्रमाण - उपयोग है। सभी जीवों में उपयोग रुप सामान्य लक्षण होने पर भी प्रत्येक शरीर में उपयोग का वैशिष्ट्य अनुभव होता है। अर्थात् जीवों में उपयोग के अपकर्ष और उत्कर्ष का तारतम्य अनन्त प्रकार का होने से जीवों को भी अनन्त मानना उपयुक्त है, जब जीवों को अनेक मानते हैं तो परलोक की भी सिद्धि हो जाती है।'
आत्मा के सर्वगतत्व की समीक्षा
आत्मा के आकार के सम्बन्ध में उपनिषदों में अनेक कल्पना दिखाई देती हैं -
आत्मा को व्यापक मानने का कारण औपनिषदिक चिन्तन की विविधता है, क्योंकि उपनिषदों में आत्मा को कहीं देह प्रमाण, कहीं अंगुल प्रमाण तो कहीं सर्वव्यापक कहा है।
'कौषीतकी उपनिषद में आत्मा को देह प्रमाण कहा है - जिस प्रकार तलवार म्यान में व्याप्त है, उसी प्रकार आत्मा शरीर में नख से शिख तक व्याप्त है।
बृहदारण्यक में 'चावल या जौ जितना बड़ा कहा है। कठोपनिषद' एवं श्वेताश्वतरोपनिषद में अंगुष्ठ प्रमाण माना है, मुण्डकोपनिषद में उसे व्यापक कहा है। इस तरह न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसक ने आत्मा को व्यापक माना है, किन्तु जैनदर्शन आत्मा को देह-प्रमाण मानता है।
जहाँ शरीर है वहाँ आत्मा है, जैसे - घट के गुण घट के अतिरिक्त बाह्य देश में उपलब्ध नहीं होने से वह व्यापक नहीं है, वैसे ही आत्मा के गुण भी शरीर के बाहर उपलब्ध नहीं होते, अतः वह शरीर प्रमाण ही है।
आत्मा अणु या चावल, जौ के दाने या अंगुष्ठ परिमाण भी नहीं है, यदि आत्मा अणुरूप है तो वह सारे शरीर में न रहकर शरीर के किसी एक निश्चित विभाग में रहेगा। इससे वह शरीर के किसी भी भाग में होने वाली सुख-दुःखानुभूति नहीं कर सकेगा। यदि आत्मा अणुरूप है तो वह शरीर के जिस भाग में है, उसे छोड़कर अन्य भाग में किसी भी
1 जेणोवओग लिंगो, जीवो भिन्नो य सो पइ सरीरं।
उवओगो उक्करिसा-वगरिसओ तेण तेऽणंता।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1583 2 कौषीतकी उपनिषद, 4-20 3 'यथा ब्रीहिर्वा यवो वा' बृहदारण्यक उपनिषद (5/6/1) 4 कठोपनिषद, 2/2/12 5 "अंगुष्ठमात्र पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट" श्वेताश्वतरोपनिषद, 3/13
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