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जैन दर्शन द्वारा अद्वैतवाद की समीक्षा
जैन दर्शन ने दो मूल तत्त्व माने हैं - जीव और अजीव। जीव भी एक नहीं, अनेक माने हैं। विशेष्यावश्यक भाष्य में भगवान महावीर ने इन्द्रभूति गौतम की शंकाओं का निराकरण करते हुए विश्व के मूल में एक ब्रह्म मानने की बात को तात्त्विक एवं व्यावहारिक दृष्टि से अनुचित बताया और अनन्त जीवों के स्वतंत्र अस्तित्व को वास्तविक बताया।
बृहदारण्यक उपनिषद् में बताया है - आकाश एक और विशुद्ध है, लेकिन तिमिर रोगी उसे अनेक मात्राओं-रेखाओं से चित्र-विचित्र देखता है। इसी प्रकार ब्रह्म भी विकल्पशून्य एक और विशुद्ध है, किन्तु अविद्या द्वारा उसके कलुषित हो जाने से वह भिन्न-भिन्न अनेक भासित होता है।'
आत्मा को एक मानने की समीक्षा करके इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आत्मद्रव्य को एक नहीं माना जा सकता। आत्मा को एक मानने पर कई समस्याएँ उद्भूत होती हैं। आकाश की तरह सभी शरीरधारियों में एक आत्मा सम्भव नहीं है, क्योंकि आकाश का सर्वत्र अवगाहन रूप लिंग-लक्षण दिखने से आकाश सभी स्थानों पर एक ही है, किन्तु जीव के विषय में ऐसा दिखाई नहीं देता है। प्रत्येक शरीर में आत्मा अलग है। यदि जीव एक ही हो तो, सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष आदि की भी व्यवस्था बन नहीं सकती। हम देखते हैं कि संसार में एक जीव सुखी है और दूसरा दुःखी है, एक बन्धनों में आबद्ध है और दूसरा बन्धन मुक्त। अतः एक ही जीव एक ही समय में बद्ध और मुक्त संभव नहीं है।' जैसे - किसी के सारे शरीर में रोग व्याप्त हो, और मात्र एक अंगुली ही रोगमुक्त हो, तो उसे रोगी ही कहा जाता है, वैसे ही जीवों का बहुभाग दुःखी हो अर्थात् उनके अधिकांश में दुःख व्याप्त हो, तो जीव को दुःखी ही कहना पड़ेगा। वह सुखी नहीं कहला सकता। तथा किसी जीव के मुक्ति भी सम्भव न होने से उसका सुखी होना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि जीव का अधिकांश भाग तो बद्ध ही है। इस प्रकार सभी जीवों को एक मानने से कोई सुखी या मुक्त नहीं कहलायेगा।
1 वृहदारण्यकउपनिषद् 3/4/43-44 2 सुह-दुक्ख-बंध-मोक्खा-भावो य जओ तेदगते।। विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1582 3 एगत्ते णत्थि सुही, बहूव घाउ त्ति देस निरुउव्व। बहुतर बद्धत्तणओ, न य मुक्को देस मुक्को व्व।। - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1585
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