________________
विपरीत इतर पक्ष का कथन है कि प्रत्येक स्वतंत्र आत्मा है ।"
शंकराचार्य का कथन है कि मूल रूप में ब्रह्म एक होने पर भी अनादि अविद्या के कारण वह अनेक जीवों के रूप में द्दग्गोचर होता है, जैसे अज्ञान के कारण रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है, वैसे ही अज्ञान के कारण ब्रह्म में अनेक जीवों की प्रतीति होती है, इसीलिए उन्हें ब्रह्म का विवर्त कहा जाता है। शंकर के इस मत को 'केवलाद्वैतवाद' कहा जाता है, क्योंकि वे केवल एक अद्वैत ब्रह्म-आत्मा को ही सत्य मानते हैं, शेष समस्त पदार्थों को मायारुप अथवा मिथ्या मानते हैं। 1
सत्योपधिवाद अनेक जीवों को मिथ्या नहीं मानते। उनके अनुसार
सत्य,
उपाधि के कारण अनेक जीव के रूप में प्रकट होता है।
"संसार में दृष्टिगोचर होने वाली अनेक आत्माओं में
-
विशिष्टाद्वैतवाद
रामानुज के अनुसार, ब्रह्म कारण और कार्य दोनों है, सूक्ष्म चिद् और अचिद् की दृष्टि से ब्रह्म कारण और स्थूल चिद् और अचिद् की अपेक्षा से वह कार्य है । क्योंकि ब्रह्म के सूक्ष्मचिद् के विभिन्न स्थूल परिणाम स्वरूप अनेक जीव है। फिर भी वे मानते हैं कि जीव और ब्रह्म भिन्न होते हुए भी एक हैं।
1
भेदाभेदवाद जीव ब्रह्म का अंश है और उसमें अंश अंशी का भेदाभेद सम्बन्ध है जिस प्रकार वृक्ष और पत्र में भेदाभेद है उसी प्रकार परमात्मा में भी चित् और अचित् इन दोनों का भेदाभेद है। ऐसे जीव अनेक है, पर ब्रह्म से भिन्न नहीं है, यह आचार्य निम्बार्क की मान्यता है ।
भास्कराचार्य भी एक ब्रह्म को मानते हैं किन्तु प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले
निरुपाधिक ब्रह्म अनादिकालीन
-
Jain Education International
जीव को एक और अनेक मानने के सम्बन्ध में समस्त दार्शनिकों की दो विचारधाराएँ काम कर रही हैं, उपनिषद्, वेदान्त और शैव अद्वैतवाद को मानते हैं, और शेष न्याय-वैशेषिक, सांख्य बौद्ध आदि अवैदिक दार्शनिक अनेक जीव मानते हैं।
भूइंदियाइ रित्तरस, चेयणा सो य दव्वओनिच्चो ।
जाइस्मरणाहिं, पडिवज्जसु वाउभूइव्य ।। विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1956
2 गणधरवाद, (दलसुखभाई मालवणिया), प्राकृत भारतीय संस्थान, जयपुर (प्रस्तावना), पृ. 96
389
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org