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________________ होता फिर भी वेद-उपनिषदों में कहीं कहीं देव-नारक लोक के प्रतिपादक वाक्य मिलते हैं, जिससे शंका होती है कि परलोक का अस्तित्व है या नहीं। विशेषावश्यकभाष्य में शंकाओं का प्रस्तुतिकरण व समाधान श्रमण भगवान महावीर ने शंका का युक्तिपूर्वक समाधान किया - परलोक के अस्तित्व की सिद्धि से पहले यह मानना आवश्यक है कि आत्मा एक स्वतंत्र द्रव्य है। आत्मा भूत से भिन्न चैतन्य-स्वरूप है। भूत समुदाय से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि प्रत्येक भूत में भी चैतन्य विद्यमान नहीं है। जैसे मद्य की सामग्री के प्रत्येक अंग (महुए के फूलों, गुड़) में मद्य की अल्पाधिक मात्रा है, अतः समुदाय में भी वह उत्पन्न होता है। प्रत्येक में होने पर ही समुदाय में होता है। मात्र भूतों के समुदाय से यदि चैतन्य प्रकट होता तो मृत शरीर में भी वह उपलब्ध होना चाहिए। भूत से भिन्न चैतन्य द्रव्य है, यह अनुमान से भी सिद्ध होता है, जैसे – पाँच गवाक्षों में उपलब्ध वस्तु का स्मरण होने से गवाक्षों से भिन्न व्यक्ति का धर्म चेतना है, वैसे ही भूतादि से भिन्न ऐसा कोई पदार्थ है जिसका धर्म चेतना है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि चैतन्य आत्मा का स्वतंत्र धर्म है। चैतन्य भूत और इन्द्रियों से भिन्न है, वह जातिस्मरणादि हेतु से अर्थात् जातिस्मरण में पुर्वभवों का ज्ञान होता है अतः द्रव्य की अपेक्षा से नित्य तथा पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। चैतन्य द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है, अर्थात् आत्मा कभी भी अनात्मा से उत्पन्न नहीं होती और न ही आत्मा किसी भी अवस्था में अनात्मा बनती है, इस दृष्टि से उसे नित्य कहते हैं। परन्तु आत्मा में ज्ञान-विज्ञान की पर्याय अथवा अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, तथा देव-नारक, मनुष्य आदि पर्यायों के कारण अनित्य है किंतु द्रव्यापेक्षा परिणामी नित्य है। आत्मा की एकता-अनेकता की समीक्षा वेदान्त दर्शन की मान्यता है कि जीव ब्रह्म एक है, संसार में दिखाई देने वाली अनेक आत्माएँ उस एक मौलिक आत्मा के कारण से ही है, वे सब स्वतंत्र नहीं है। इसके ' असूर्या नाम ते लोका, अन्धेन तमसावृताः। तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति, ये केचात्महनो जनाः।। ईशावास्योपनिषद् - 3 2 तवरमे वि सरणओ, तव्वावारे वि नोवलंभाओ। इंदियभिन्नस्स मई, पंचगवक्खाणुभविणो व्व।। - विशेष्यावश्यकभाष्य, गाथा 1657 388 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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