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वाला चैतन्य भी विनाशी होना चाहिए, अतः भूतों से भिन्न होने पर भी वह नष्ट हो जायेगा।
एकात्मवादियों को यह मान्यता थी कि इस जगत् में सब कुछ ब्रह्म-स्वरूप है, उसके सिवाय विभिन्न दिखाई देने वाले पदार्थ कुछ नहीं हैं, अर्थात् चेतन-अचेतन, पृथ्वी आदि पंचभूत तथा जड़ पदार्थ सब एक ब्रह्मरूप हैं। सूत्रकृतांग सूत्र में इस मान्यता के सम्बन्ध में बताया गया है कि, “जैसे एक ही पृथ्वी-पिण्ड, नदी, समुद्र, शिला, बालू, धूल, गुफा, कंदरा आदि के भेद से विभिन्न प्रकार का दिखाई देता है, किन्तु इन सब में एक पृथ्वी तत्त्व व्याप्त रहता है, उसी प्रकार एक ब्रह्म ही चेतन-अचेतन रूप समग्र लोक में व्याप्त है। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् का एक श्लोक इस तथ्य की पुष्टि करता है -
एक एव हि भूतात्मा, भूते-भूते व्यवस्थितः, एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत्।।
अर्थात् एक ही भूतात्मा सब भूतों में व्यवस्थित है, वह एक होने पर भी जल में चन्द्र के प्रतिबिम्ब की भांति विभिन्न रूपों में दिखाई देता है।
कठोपनिषद् में एक ही आत्मा के अनेक रूपों को अग्नि के उदाहरण द्वारा समझाया गया है कि, जैसे अग्नि जगत् में प्रवेश कर अनेक रूपों में व्यक्त होता है, वैसे ही एक आत्मा सब भूतों की अन्तरात्मा में प्रविष्ट हो विविध रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है।
___ इस प्रकार की मान्यता से परलोक की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि वह सर्वगत और निष्क्रिय होने से आकाश के समान प्रत्येक पिण्ड में व्याप्त है, अतः उसका संसरण संभव नहीं है, संसरण के अभाव में परलोक-गमन कैसे संभव हो सकता है?
परलोक नहीं मानने का दूसरा कारण यह है कि परलोक अर्थात् देव अथवा नारक का भव, माना जाता है जबकि वह मनुष्य या तिर्यञ्च की भाँति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं
1 (क) 'जहा य पुढवीथूभे, एगे नाणा हि दीसइ।
एवं भो कसिणे लोए, विष्णू नाना हि दीसइ।। - सूत्रकृतांग सूत्र 1-1-9 (मुनि हेमचन्द्र जी, - सूत्रकृतांगसूत्र विवेचन, पृ. 83) (ख) युवाचार्य मधुकर मुनि, सूत्रकृतांगसूत्र, ब्यावर, पृ. 24 (ग) युवाचार्य महाप्रज्ञ, सूयगढ़ो, लाइन, पृ. 8 2 ब्रह्मबिन्दुपनिषद - 11 3 अह एगो सव्वगओ, निक्किरिओ तह वि परलोओ।
संसरणाभावाओ, वोमस्स व सव्व पिंडेसु।। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1954
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