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शाश्वत मानते हैं, इसलिए उन्होंने पुनर्जन्म (परलोक) के सिद्धान्त की स्थापना की। मृत्यु के पश्चात् प्राणी की क्या गति होती है, इस विषय में तीन अवधारणाएँ हैं - 1. आत्मा है, पुनर्जन्म नहीं है। 2. आत्मा भी नहीं है, पुनर्जन्म भी नहीं है। 3. आत्मा है, पुनर्जन्म है।
ईसाई व इस्लाम दर्शनों में आत्मा को स्वीकार किया है, पुनर्जन्म को नहीं। चार्वाक दर्शन आत्मा-परमात्मा, परलोक किसी की भी सत्ता नहीं मानते, उनके लिए वर्तमान जीवन ही सब कुछ है। चार्वाकेत्तर दर्शन की लगभग सभी शाखाओं ने इसके अस्तित्व को स्वीकार किया है। आत्मा त्रैकालिक है, जिसका पूर्व में अस्तित्व था, भविष्य में अस्तित्व रहेगा और वर्तमान सत्ता इसके अस्तित्व की सिद्धि का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
इन सब की चर्चा से मेतार्य जी को यह शंका थी कि - परलोक है या नहीं?
चार्वाक् दर्शन की मान्यता है कि -- पंचमहाभूत ही शरीर के रूप में परिणत होकर दौड़ना, बोलना आदि सब क्रियाएँ करते हैं, शरीर के नष्ट होते ही आत्मा नष्ट हो जाती है। जैसे - गुड़, धतूरा आदि मद्य के अंगों या सामग्री से मद-धर्म भिन्न नहीं होता, वैसे ही भूतों का धर्म चैतन्य यदि भिन्न न हो तो परलोक को मानना युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि भूतों के नाश के साथ ही चैतन्य का भी नाश हो जाता है। फिर परलोक या पुनर्जन्म किस रूप में मान्य होगा।'
जैसे श्वेत वस्त्र का धर्म श्वेतत्व, वस्त्र से अभिन्न है, वस्त्र के नाश होने पर उसका भी नाश हो जाता है, वैसे ही भूतों (शरीर) का धर्म चैतन्य, भूतों से अभिन्न हो तो भूतों के नाश के साथ ही उसका भी नाश हो जायेगा।
यदि चैतन्य को भूतों से भिन्न माना जाए तो भी परलोक स्वीकारने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि भूतों से उत्पन्न होने के कारण अनित्य है। जैसे - अरणि नाम की लकड़ी से उत्पन्न होने वाली अग्नि विनाशी है, वैसे ही भूतों से उत्पन्न होने
1 मण्णसि जइ चेयण्णं, मज्जंगमउ व्व भूयधम्मो ति।
तो नत्थि परलोगो, नन्नासे जेण तन्नासो।। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1952 2 अह वि तदत्थंतरया, न य निच्चत्तणमओ वि तदवत्थं ।
अनलस्स वाऽरणीओ, भिन्नस्स विणासधम्मस्स।। - विशेष्यावश्यक भाव गाया 1953
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