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कल्पना की, वे प्राकृतिक वस्तुओं के आधार पर की गई। प्रारम्भ में अग्नि जैसे प्राकृतिक पदार्थों को देव माना गया, धीरे-धीरे अग्नि आदि देवों की कल्पना की गयी। कुछ देवताओं का सम्बन्ध क्रिया से माना गया, जैसे कि त्वष्टा, धाता, विधातादि। पर यह कल्पना बाद में स्पष्ट हुई कि देवलोक मनुष्य की मृत्यु के बाद का परलोक है। नरक और नारकी सम्बन्धी विचार वेदों में सर्वथा अस्पष्ट है। इसी कारण अकम्पित जी को शंका हुई कि नारक या नरक है या नहीं? परम्परागत मान्यता है कि श्रमण भगवान महावीर ने इन गणधरों की परलोक, देव और नारक सम्बन्धी शंका का समाधान युक्तिपूर्वक दिया, जिसका विस्तृत वर्णन आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेष्यावश्यक भाष्य के गणधरवाद के अन्तर्गत किया।
परलोक (पुनर्जन्म) सम्बन्धी शंका साधकों तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि वह दार्शनिकों या तार्किकों तक पहुंच गई। साधकों ने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर कथन किया, किन्तु परोक्षज्ञानी, प्रत्यक्षज्ञानी के अनुभव को नहीं पकड़ सकता है, फलस्वरुप वह तर्क के आधार पर किसी भी तथ्य को कसौटी पर कसता है। पुनर्जन्म, परलोक, देवलोक, नरकलोक के विषयों को दार्शनिकों ने अपने तर्कों से परखा, तदनन्तर उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि परलोक वास्तविकता में है। विशेषावश्यकभाष्य में परलोक, स्वर्ग-नरक की अवधारणा तथा समाधान मेतार्य जी की शंका तथा उसका कारण
मेतार्य मूलतः वैदिक परम्परा के विद्वान थे। वैदिक परम्परा के साहित्य में जहाँ एक ओर ऐसे उल्लेख उपलब्ध होते हैं, जो पुनर्जन्म के विरोध में जाते हैं जैसे कि - “विज्ञानधन एवं एतेभ्यो भूतेभ्यः” किन्तु इसके विरूद्ध वैदिक साहित्य में विशेष रूप में उपनिषदों में ऐसे अनेक संदर्भ हैं जो पुनर्जन्म की पुष्टि करते हैं। यथा – “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः। ऐसे दोनों प्रकार के वचनों के कारण ही उनके मन में परलोक सम्बन्धी शंका का जन्म हुआ और जिसके समाधान हेतु वे महावीर के पास पहुंचे थे।'
___ महावीर के युग में और उसके परवर्ती दर्शन युग में दर्शन के क्षेत्र में आत्मा की नित्यता तथा पुनर्जन्म का विषय बहुत मौलिक और चिन्तनपरक है। आत्मवादी आत्मा को
' चित्तं त्वदीये किल संशेयोऽयं, यन्नारका सन्ति नदेति सौम्य। महावीर देशना, श्लोक 2, पृ. 192
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