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यह माना जाने लगा कि मनुष्य के सुख-दुःख का आधार केवल उसकी प्रत्यक्ष क्रिया नहीं, परन्तु इसमें परलोक या पूर्वजन्म की क्रिया का जो संस्कार अदृष्ट रुप से उसकी आत्मा से बद्ध है, भी एक महत्वपूर्ण भाग है। यही कारण है कि प्रत्यक्ष सदाचार के अस्तित्व में भी मनुष्य पूर्वजन्म के दुराचार का फल दुःख रुप से भोगता है और प्रत्यक्ष दुराचारी होने पर भी पूर्वजन्म के सदाचार का फल सुख रुप में भोगता है। अतः यह स्पष्ट है कि मृत्यु के साथ ही जीवन का अन्त नहीं होता, बल्कि पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की परम्परा चलती रहती है।
इसके उपरांत भी कतिपय धर्म, दर्शन, मत या पन्थ इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि, इस लोक (इस जन्म) के बाद परलोक (अगला जन्म) भी होता है। जैसे कि- चार्वाक दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर के साथ ही नष्ट होने वाला तत्त्व है, पाँच भूतों के सम्मिश्रण से आत्मा का आविर्भाव होता है और इनके नष्ट होते ही आत्मा भी समाप्त हो जाती है, जब आत्मा ही नहीं है तो इहलोक - परलोक की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। और न ही कर्म के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। कर्म के सद्भाव से ही जीव की भवयात्रा निरन्तर चलती रहती है। यह अटल सिद्धान्त है कि 'कर्म जन्म-जन्मान्तर तक फल देते हैं, और जब तक जीव मुक्त नहीं हो जाता है तब तक वे अविच्छिन्न रुप से उसके साथ संलग्न रहते हैं। कुछ कर्मों का फल तो तत्काल मिल जाता है किन्तु कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं, जिनका फल इस जन्म में नहीं मिल पाता, अगले जन्मों में या फिर कई जन्मों के बाद मिलता है ।'
इन सब तर्कों के कारण दसवें गणधर मैतार्य के मन में प्रश्न उद्भूत हुआ कि, “परलोक है अथवा नहीं? "2 मृत्युपरान्त जीव की जो विविध गतियाँ होती हैं, उनमें देव, प्रेत और नारक ये तीनों अप्रत्यक्ष हैं ( दिखाई नहीं देते हैं) अतः शंका हुई कि मनुष्य गति व तिर्यञ्च गति रुप यह लोक तो दिखाई देता है किन्तु देव - नारक रुप परलोक दृष्टिगत नहीं होता है, अतः इस जन्म के अतिरिक्त दूसरा जन्म है या नहीं?
गणधर मौर्यपुत्र की देवलोक के अस्तित्व के सम्बन्ध में शंका थी, क्योंकि वैदिक परम्परा में देवलोक व देवों का उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं है। वेदों में जिन देवों की
जैनदर्शन
मनन और मीमांसा, आ. महाप्रज्ञ, पृ. 293
किमस्ति नो वा परलोक वस्तु " इति त्वदीयः किल संशयोस्ति” महावीरदेशना, श्लोक 2, पृ. 226
३ मायोपमानथ सुरान् ननु कोऽहिपश्येत्, तत् ते विरुध्दकथनात् किलदेवशंका, महावीरदेशना, पृ. 180
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