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________________ नवम अध्याय परलोक के अस्तित्व सम्बन्धी समस्या और उसका समाधान जीवन का स्वरुप जो वर्तमान में दिखाई दे रहा है, वह उतने तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसका सम्बन्ध अनन्त भूतकाल और अनन्त भविष्यत्काल के साथ जुड़ा हुआ है। वर्तमान जीवन उस अनन्त श्रृंखला की एक कड़ी मात्र है। अगले भव में जीवात्मा को जो लोक प्राप्त होता है, वह परलोक है। परलोक का अर्थ है - मृत्यु के बाद का लोक। जितने आस्तिक दर्शन है वे आत्मा और कर्म को केन्द्र में रखकर चर्चा रखते हैं, वे भी परलोक को स्वीकार करते हैं, क्योंकि परलोक को मानने पर ही कर्म व्यवस्था सुचारु रूप से जम सकती है। कर्म और परलोक - विचार ये दोनों परस्पर इस प्रकार सम्बद्ध हैं कि, एक के अभाव में दूसरे की संभावना नहीं है। जब तक कर्म का अर्थ केवल प्रत्यक्ष क्रिया ही किया जाता था, तब तक उसका फल भी प्रत्यक्ष देखा जाता था। जैसे किसी ने वस्त्र सीने का कार्य किया और उसे फलस्वरुप सिला हुआ वस्त्र मिल गया। किसी ने भोजन बनाने का काम किया और उसे रसोई तैयार मिली। इस प्रकार यह स्वाभाविक है कि प्रत्यक्ष क्रिया का फल साक्षात् और तत्काल माना जाए. किन्तु मनुष्य के सामने वह वक्त भी आता है कि उसकी सभी क्रियाओं का फल साक्षात् नहीं मिलता और न ही तत्काल प्राप्त होता है। किसान खेती करता है, परिश्रम भी करता है, किन्तु यदि ठीक समय पर वर्षा न हो तो उसका सारा श्रम धूल धूसरित हो जाता है। फिर यह भी देखते हैं कि - नैतिक नियमों का पालन करने पर भी संसार में एक व्यक्ति दुःखी रहता है और दूसरा दुराचारी होने पर भी सुखी। यदि सदाचार से सुख की प्राप्ति होती हो तो सदाचारी को सदाचार के फलस्वरुप सुख तथा दुराचारी को दुराचार का फल दुःख के रूप में साक्षात् और तत्काल क्यों नहीं मिलता? नवजात बालक ने ऐसा क्या किया कि वह जन्म लेते ही सुखी या दुःखी हो जाता है? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करते हुए जब मनुष्य ने कर्म के सम्बन्ध में अधिक गहन विचार किया तब इस तथ्य ने जन्म लिया कि कर्म केवल साक्षात् क्रिया नहीं दष्ट-संस्कार रुप भी है। इसके साथ ही परलोक पर भी चिन्तन होने लगा। 1 गणधरवाद, दलसुखभाई मालवणिया, पृ. 150 383 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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