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अचलभ्राता ने जो पाँच प्रकार के विकल्प रखे, उन में से चौथा विकल्प ही युक्तियुक्त है। पाप व पुण्य दोनों स्वतंत्र है। एक दुःख का कारण है और दूसरा सुख का हेतु है। तथा स्वभाववाद सर्व युक्तियों से बाधित है।
एकान्तवाद में यह माना जाता है कि पुण्य की हानि से दुःख होता है तथा वृद्धि से सुख होता है या पाप की वृद्धि से दुःख तथा हानि से सुख की प्राप्ति होती है। किन्तु यह मिथ्या दृष्टिकोण है। दुःख की प्रकृष्टता तदनुरूप कर्म के प्रकर्ष से सिद्ध होती है, जैसे कि - सुख के प्रकृष्ट अनुभव का आधार पुण्य-प्रकर्ष है, वैसे ही दुःख के प्रकृष्ट अनुभव का आधार पाप -प्रकर्ष है। अतः दुःखानुभव का कारण पुण्य का अपकर्ष नहीं अपितु पाप का प्रकर्ष है। इसी प्रकार केवल पापवाद का भी निरसन किया गया है।
संकीर्णपक्ष का निरास करते हुए भ. महावीर ने कहा कि कोई भी कर्म पुण्य-पाप उभयरूप नहीं हो सकता क्योंकि कर्मबन्ध का कारण योग है, योग एक समय में या तो शुभ होगा या अशुभ। वह शुभाशुभ उभयरूप नहीं हो सकता अतः उसका कार्य भी या तो शुभ होगा या अशुभ, वह उभयरूप नहीं हो सकता।
जैन कर्म सिद्धान्त में पुण्य-पाप को आस्रव और बन्ध में समाहित किया है। पुण्यास्रव -पापास्रव या पुण्य बन्ध - पाप बन्ध के नाम से जाना जाता है, जिसका वर्णन इस अध्याय में किया गया है।
जैन दर्शन में जितना पुण्य-पाप के बारे में विवेचन मिलता है, उतना अन्य दर्शन में नगण्य सा है। पुण्य और पाप को समझ लेने के बाद साधक कर्मों के बन्धन से दूर रहता है, हित-अहितकार्य के ज्ञान होने पर वह आत्मा को अपवित्र कार्यों से बचाता है।
भारत के सभी धर्मों और साधना पद्धतियों का सार है - लोकमंगल या विश्वकल्याण। जैन धर्म में तीर्थंकर का, बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व का, हिन्दू धर्म में अवतार का चरम लक्ष्य लोक कल्याण की साधना ही है। यह लोक-कल्याण की प्रवृत्ति ही परोपकार, सत्कर्म, कुशलकर्म, पुण्यकर्म आदि नामों से अभिहित की जाती है। करुणा, सेवा, रक्षा, परपीड़ा की निवृत्ति आदि इसके प्रमुख अंग हैं। इससे विपरीत दूसरों को दुःख देना, पीड़ा पहुँचाना, पाप के मुख्य कार्य हैं।
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