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अकर्म - फलासक्तिसहित होकर अपना कर्त्तव्य समझकर जो भी कर्म किया जाता
है, उस कर्म का नाम अकर्म है।' गीता रहस्य में तिलक ने दस प्रकार के पापचरण का वर्णन किया - (अ) कायिक - 1. हिंसा 2. चोरी 3. व्यभिचार (ब) वाचिक - 4. मिथ्या 5. ताने मारना 6. कटुवचन
7. असंगत वाणी। (स) मानसिक - 8. परद्रव्य की अभिलाषा 9. अहितचिन्तन
10. व्यर्थ आग्रह। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं - कर्म अर्थात् पुण्य तथा विकर्म अर्थात् पाप।
समीक्षा
उस काल में विभिन्न धर्म सम्प्रदाय में पुण्य और पाप विषयक पुण्यवाद, पापवाद, स्वभाववाद आदि अनेक मत मतान्तर प्रचलित होने से वेदज्ञ विद्वान अचलभ्राता जी के मन में इसके विषय में अनेक शंकाए थी। उनके मन में अनेक विकल्प थे - यथा
1. केवल पुण्य ही है पाप नहीं ।
केवल पाप ही है पुण्य नहीं। 3. पुण्य और पाप एक ही साधारण वस्तु है भिन्न-भिन्न नहीं
पुण्य-पाप भिन्न - भिन्न है तथा स्वभाव ही सब कुछ है, पुण्य-पाप कुछ नहीं ।
इन शंकाओं का समाधान श्रमण भ. महावीर ने किया, जिसका वर्णन आचार्य जिनभद्रगणि ने विशेष्यावश्यक भाष्य में किया है। उन सब तथ्यों को इस अध्याय में समाहित किया गया है। अचलभ्राता जी की शंका का समाधान करते हुए निष्पक्ष रुप से पुण्य-पाप को स्वतंत्र तत्त्व माना है।
'जैन, बौ. गी. के आ. द. का तुलनात्मक अध्ययन, सागरमल जैन, पृ. 347
जैन, बौ. गी. के आ. द. का तुलनात्मक अध्ययन, सागरमल जैन, पृ. 333
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