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इसे तत्त्व की भाषा में कहें तो आस्रव तत्त्व कहा जाता है। जैनदर्शन के नवतत्त्वों में आस्रव भी एक तत्त्व है। मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया से आत्मप्रदेशों में कम्पन होता है, उससे कर्म-परमाणु आत्मा की ओर खींचते हैं। क्रिया शुभ होती है तो शुभकर्म परमाणु और वह अशुभ होती है तो अशुभकर्म परमाणु आत्मा से आ चिपकते हैं। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि - आस्रव तत्त्व एक है, वह पुण्य और पाप परस्पर विरोधी रुपों में कैसे प्रकट हो सकता है? इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है - एक पौधा है, भूमि, पानी और खाद आदि एक हैं, किन्तु उसी पर गुलाब का फूल खिलता है, महकता है, अपनी सुगन्ध से जन-मन के चित्त को प्रसन्न करता है और उसी डाली पर काँटा भी उत्पन्न होता है, जो शूल है, कष्टदायी है, अप्रिय है।
___अर्थात् पुष्प-पुण्य का प्रतिरुप है तथा कंटक पाप का। इस प्रकार आस्रव दोनों रुपों में होता है - शुभ भी और अशुभ भी। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में पुण्य-पाप को माना है किन्तु जैन दर्शन में इस विषय में विस्तृत चर्चा उपलब्ध है।
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