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चित्त में आनन्द की वृद्धि होती है। सत्व की शुद्धि से प्राणवायु व्यवस्थित रूप से शरीर में प्रवाहित होती है।
' छान्दोग्य - उपनिषद में बताया है कि - वास्तव में यह जीव पुण्यकर्म से पुण्यशाली होता है अर्थात् पुण्य योनियों में जन्म पाता है, और पापकर्म से पापात्मा होता है, अर्थात् पाप-योनियों में जन्म ग्रहण करके दुःख प्राप्त करता है।'
वाल्मिकी रामायण में भी कहा है - हे कल्याणि! कर्ता शुभ अथवा अशुभ जैसा भी आचरण करता है, उस कर्म का फल उसी रूप में वह पाता है।
जैसे – कोई कृषक अपने खेत में धान बोये और गेहूँ की फसल काटना चाहे, यह कदापि सम्भव नहीं होता, उसी प्रकार पापकर्म करके पुण्यफल प्राप्त करना चाहे, यह असम्भव है।
'योगदर्शन में पुण्य-पाप का साक्षात् फल बताते हुए कहा गया है - वे जन्म, आयु और भोग -पुण्य-पाप हेतुक होने से आल्हाद और परिताप रूप (सुख - दुःख रूप) फल वाले होते हैं, अर्थात् पुण्य हेतु वाले जाति, आयु और भोग सुखमय तथा पाप हेतु वाले जाति, आयु और भोग दुःखरूप होते है।
मनुस्मृति में कहा है - दुराचारी पापात्मा व्यक्ति इस लोक में निन्दित, दुःखभाजन, रोगी और अल्पायु होते है। इसके विपरीत श्रेष्ठ आचरण करने वाला दीर्घ जीवी होता है, वह श्रेष्ठ सन्तान और सुसम्पन्नता प्राप्त करता है।
यह सुस्पष्ट है कि शारीरिक, मानसिक रोग सन्ताप, दरिद्रता, दुर्घटना, अकाल मुत्यू, विपत्ति, संकट आदि अनेकों आकस्मिक विपदाओं के मूल कारण पूर्वकृत पापकर्म ही होते हैं।
इस प्रकार विविध दर्शनों में कर्म के भेद किए हैं, उनमें से पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म रुप भेद सभी दर्शनों को मान्य है। प्राणी जिस कर्म के फल को अनुकूल अनुभव करता है, वह पुण्य है और जिस फल को प्रतिकुल समझता है, वह पाप है।
' पुण्यो वे पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन, साधुकारी साधु भवति, पापकारी पापे भवति।। छान्दोग्योपनिषद।
यदाचरति कल्याणी! शुभं वा यदि वाऽशुभम्। तदेव लभते भद्रे, कर्ता कर्मजमात्मनः।। वाल्मिकी रामायण, अयोध्या काण्ड 6/6 'ते आल्हादः - परिताप फलाः, पुण्या-पुण्य हेतुत्वात्।। योगदर्शन 2/14
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