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दोसो (द्वेष) 9. इस्सा (ईर्ष्या)
मच्छरियं (मात्सर्य) 11. कुक्कुच्च (कौकृत्य)
थीन
मिद्धं 14. विचिकिच्छा (विचिकत्सा)'
पुण्य के बारे में संयुक्तनिकाय में कहा गया है- अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, आसन, एवं चादर के दानी पण्डित पुरूष में पुण्य की धाराएं आ गिरती है।
अभिधम्मत्य संगहो में बताया है -
1. श्रद्धा,
2. अप्रमत्तता 3. पाप कर्म के प्रति लज्जा 4. पाप कर्म के प्रति भय 5. अलोभ 6 . अद्वोष 7. समभाव
8. मन की पवित्रता 9. शरीर की प्रसन्नता 10. मन का हलकापन 11. मन की मृदुता 12. शरीर की मृदुता 13. मन व शरीर की सरलता। इन को कुशल चैतसिक कहा गया है।
बौद्धदर्शन में सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि को कर्म के शुभत्व का आधार माना गया है।
सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि जैसा मैं हूँ वैसे ही ये दूसरे प्राणी भी है और जैसे ये दूसरे प्राणी है, वैसा ही मैं हूँ, इस प्रकार सभी को समान समझकर किसी की हिंसा या घात नहीं करना चाहिए। वैदिक दर्शन में पुण्य - पाप की चर्चा :
पुण्यक्रिया के सुफल की चर्चा करते हुए, 'योगवसिष्ठ' में कहा गया है - "हे सज्जन! मानसिक व्यथाएं (आधि) और शरिरिक व्याधियां शुद्ध पुण्यक्रिया और साधुसेवा से नष्ट हो जाती है। पुण्य से मन उसी प्रकार निर्मल (पवित्र) हो जाता है, जिस प्रकार कसौटी पर कसने से सोना निर्मल हो जाता है। हे राघव! पुण्यकर्म से देह शुद्ध होने पर
' अभिधम्मत्य संग्गहो, पृ. 19/20
डा. सागरमल जी जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, वही, पृ. 332-333
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